________________ पंच उ अणुव्वयाइं थूलगपाणिवहविरमणाईणि। तत्थ पढम इमं खलु पन्नत्त वीयरागेहिं॥६७ स्थूल प्राणिवध विरमण आदि अणुव्रत पाँच ही है उनमें वीतराग परमात्मा ने प्रथम व्रत उसे कहा है जिसका स्वरूप आगे निर्दिष्ट किया जा रहा है। स्थूल शब्द जो व्रतों में आया है उसके पीछे ग्रंथकार का कुछ अभिप्राय रहा हुआ है, / वह यह कि जिसे मिथ्यादृष्टि भी जीव रूप में स्वीकारते है वह स्थूल जिसको सम्यग्दृष्टि ही जीव रूप में मानता है वह सूक्ष्म। बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चउरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीव स्थूल हैं। कारण कि मिथ्यादृष्टि भी प्रायः उनको जीवरूप में स्वीकारते है तथा एकेन्द्रिय जीव सूक्ष्म हैं, कारण कि प्रायः सम्यग्दृष्टि जीव ही उनको जीव रूप में मानते है और उनके वध से भी बचने की कोशिश करते है। निरर्थक उनकी हिंसा नहीं करते है। (1) स्थूल प्राणातिपात विरमणव्रत - स्थूल प्राणियों के वध से विरत होना स्थूल प्राणातिपात कहलाता है। "उपासकदशाङ्ग' में आनंद श्रावक भगवान महावीर के पास पाँच अणुव्रत सहित बारह व्रतों को धारण करता है जिसमें प्रथम व्रत का पाठ इस प्रकार मिलता है। “तए णं से आणन्दे गाहावई समणस्स भगवओ महावीरस्स अन्तिए तप्पढमयाए थूलगं पाणाइवायं पच्चक्खाइ जावज्जीवाए दुविहं तिविहेणं न करेमि न कारवेमि मणसा वयसा कायसा।६८ उस समय आनंद गाथापति ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास बारह व्रतों में प्रथम स्थूल प्राणिओं की हिंसा मन-वचन काया से न करूँगा और नहीं करवाऊँगा ऐसा यावज्जीव (जीवन पर्यन्त) पच्चक्खाण लिया। आचार्य हरिभद्रसूरि ने उन्हीं अपने पूर्वजों का अनुसरण करते हुए अज्ञानी जीव को बोध देने हेतु विशेष रूप से अपना चिन्तन “श्रावकप्रज्ञप्ति" आदि में देते है जैसे कि थूलपाणि वहस्स विरई, दुविहो असो वहो होइ। संकप्पारंभेहि य वज्जइ संकप्पओ विहिणा॥६९ स्थूल प्राणियों के वध से अटकना वह स्थूल प्राणतिपात विरमणव्रत कहलाता है। वह वध संकल्प और आरम्भ के भेद से दो प्रकार का है उसमें प्रकृत प्रथम अणुव्रत का धारक श्रावक आगमोक्त विधि के अनुसार संकल्प से ही वध का परित्याग करता है। ___ अर्थात् स्थूल नामकर्म के उदय से जिनका शरीर स्थूल (प्रतिघात सहित) होता है उन्हे स्थूल और सूक्ष्मनामकर्म के उदय से जिनका शरीर सूक्ष्म (प्रतिघात रहित) होता है उन्हे सूक्ष्म कहा जाता है। प्रस्तुत में स्थूल प्राणिओं से अभिप्राय द्विन्द्रियादि जीवों का है / उनके शरीर इन्द्रिय, उच्छ्वास, आयु और बल रूप प्राणों के विघात का परित्याग करना इसे स्थूल प्राणवधविरति कहते है। प्रथम अणुव्रती श्रावक उस वध का परित्याग संकल्प से ही करता है निरन्तर आरम्भ में प्रवृत्त रहनेवाला गृहस्थ आरम्भ से उसका परित्याग नहीं कर सकता [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VI चतुर्थ अध्याय 256)