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________________ अभिनन्दन -पं. जयनन्दन झा. 'न विना गुरु सम्बन्धं ज्ञानस्याधिगमः स्मृतः।' - अर्थात् सद्गुरु सम्बन्ध हुए बिना ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती है। इन्हीं सद्गुरुओं की परम्परा ने चिरन्तन काल से भारत की वसुन्धरा पर आत्मविद्या एवं तत्त्वज्ञान की उदात्त दृष्टि से मूल्यवान विचारों को पतनोन्मुखी होने से बचाया है। इस देश में एक के पश्चात् एक प्राणवान् विद्वान् प्रकट होते रहे है। इस प्राणवान्, मूल्यवान प्रवाह की गति की अविरलता में साधु-संतों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। भारत वर्ष के अनेकानेक महापुरुषों व ऋषि-मुनियों की श्रृंखला में 1444 ग्रन्थों के रचयिता समर्थ उदारवादी समन्वयवाद के पुरोधा आचार्य हरिभद्र सूरीश्वरजी महाराजा साहित्य जगत में चमकते हुए सितारे की भाँति देदिप्यमान है। उनके विशालतम साहित्य पर शोध-कार्य करना एक विचक्षण कार्य है जिसे अनुसंधानित किया है, साध्वीजी अनेकान्तलता श्रीजी ने। प्रेरक उदात्त विचारों के संग्रह से अभिभूत होने के कारण आपकी सफलता असीम ज्ञान निधि की ओर सतत उन्मुख होती रही, फलस्वरुप यह शोध ग्रन्थ सामने है। - प्रेरणा सदैव बहते हुए जलस्रोत की भाँति है, जो बाधाओं को धकेलती हुई सदैव अग्रगामिनी रहती है। प्रेरित छोटी-छोटी नदियों की भाँति उससे यत्र-तत्र मिलती रहती है / अन्त में असीम ज्ञानरूपी जलराशि में मिलकर एकत्व या समत्व का आभास कर एकत्व में बदल जाती है। वही विराट है जहाँ अनवरत प्रक्रिया चलती रहती है, जहाँ न प्रेरक है और न प्रेरित है। - आचार्य हरिभद्र सूरि के इसी एकत्व और समत्व भावों का निचोड़ रूप आपका यह शोध-प्रबन्ध ग्रन्थ निश्चित रूप से जन-जन के लिए उपकारी बनेगा ऐसा मेरा दृढ विश्वास है और इस दुष्कर कार्य को सफल बनाने में जो कठोर परिश्रम किया उसका में हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ। VIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIMA 15 VIIIIII
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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