SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 304
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इस गाथा में दो अर्थ सूचित किये है - “अणिगूहियबल विरिओ' इस पद से शक्ति का छुपाना नहीं और जहत्थाम' से शक्ति का उल्लंघन करने का निषेध किया है अर्थात् कोई भी धर्मप्रवृत्ति यथा शक्ति करना। वृद्ध पुरुषोंने परक्कमइ और मुंजइ - इन दो पदों का उक्त अर्थ से भिन्न अर्थ किया है जिससे गाथा की व्याख्या इस प्रकार होगी ज्ञानादि आचार का शिक्षण करते समय बल और वीर्य को छुपाये बिना प्रवृत्ति करना अर्थात् बल और वीर्य को छुपाये बिना ज्ञानादि आचारों को सीखना। तत्पश्चात् यथाशक्ति ज्ञानादि आचारों को आचरण करना२२ ‘पञ्चाशक' के टीकाकार अभयदेवसूरि ने उपर्युक्त प्रकार से संक्षेप में ही आचार के प्रभेदों का वर्णन किया है, लेकिन आचार्य हरिभद्रसूरि ने 'दशवैकालिक बृहद् टीका' में आचार के प्रभदों का दृष्टांत देकर विस्तार से वर्णन किया है। यह आचार्य श्री की अपनी ही मति वैभवता के दर्शन कराता है। जैसे कि विनय और बहुमान की विशेषता को बताने वाला दृष्टांत इस प्रकार है। ___ एक पहाड़ की गुफामें शिव मंदिर है। उसको ब्राह्मण और भील दोनों पूजते है। ब्राह्मण पूजा करके मंदिरं को साफ रखना पानी छांटना आदि उद्यम करता हुआ पवित्र बनकर स्तुति करता है / विनय युक्त है / लेकिन बहुमान रहित है, लेकिन पुलिंद उस शिव में भाव रखकर मलिन पानी से स्नान करवाता है और बैठता है तब शिव प्रत्यक्ष उसके साथ बाते करने लगता है। ब्राह्मण ने दोनों का स्वर सुना तत्पश्चात् पुलिंद जाने के बाद सेवा करके उपालम्भ दिया कि हे शिव ! तू ऐसा कट पूतना शिव (निम्न जाति देव) है कि जो ऐसे निम्न जाति वाले के साथ बाते करता है। शिव ने कहा उसकी भक्ति बहुमान अधिक है वैसा तुम्हारा नहीं है। एक दिन एक आँख निकालकर शिव स्थित है उस समय ब्राह्मण आया और रोने लगा थोडी देर में रोकर शांत हो गया। उसी समय पुलिंद आया और आँख रहित शिव को देखकर अपनी आँख तीर द्वारा निकाल कर शिव को चढ़ा दी तब शिव ने ब्राह्मण को उसके बहुमान भाव को प्रत्यक्ष दिखा दिया / इस लौकिक दृष्टांत से आचार्य श्री ने समझाया कि पढ़ने वाले को विनय और बहुमान दोनों करने चाहिए। यदि बहुमान भाव नहीं होगा तो ज्ञान परिणत नहीं बन सकता है। वीर्याचार में आचार्य हरिभद्रसूरि ने यह विशेष बताया कि ज्ञान, दर्शन, चारित्र के 24 तथा तपके बारह कुल 36 भेद हुए। यथोक्त 36 लक्षणवाले आचार के प्रति पराक्रम करता है उद्यम करता है वही वीर्याचार है। 'धर्मबिन्दु'३४ में संक्षेप से आचारों का वर्णन करने में आया है। आचार्य श्री हरिभद्रसूरि ने आचार विषयों में आचार और आचारवान् में कुछ अभेदता बताकर दार्शनिक तत्त्व स्याद्वाद को उजागर किया है। जो जैन दर्शन का सर्वोत्कृष्ट दार्शनिक तत्त्व है। श्रावकाचार श्रावक के करने योग्य आचार क्रिया वह श्रावकाचार कहलाता है। आचार का विवेचन तो पहले कर लिया है, लेकिन अब शंका होती कि श्रावक किसे कहना ? क्योंकि 'श्रावक शब्द' जैनवाङ्मय में ही प्रचलित | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VII IA चतुर्थ अध्याय | 248)
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy