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________________ है। जिसका वर्णन आगम ग्रन्थों में मिलता है, वह इस प्रकार है - 'ज्ञाता धर्मकथा' में “सम्यगदर्शन सम्पन्नः प्रवचनभक्तिमान षड्विधावश्यक निरतः षट्स्थानयुक्तश्च श्रावको भवति।५ जो जीवात्मा सम्यग्दर्शन से सम्पन्न है, प्रवचन की भक्तिवाला है, छ: प्रकार के आवश्यक को करने में हमेशा तत्पर है, षट्स्थान से युक्त है वह श्रावक कहलाता है। भगवतीजी में जो मुनि भगवंतो के मुख से निसृत जिनवाणी का अमृत पान करने में तत्पर रहता है वह श्रावक है।३६ स्थानांग में जो जिनवाणी पर श्रद्धा को धारण करता हुआ सुनता है वह श्रावक है / 37 'निशीथ चूर्णि' में “सावगा गहिताणुव्वाता अगाहिताणुव्वता वा” अणुव्रत ग्रहण करनेवाला अथवा नहीं करनेवाला श्रावक कहलाता है।३८ ‘आवश्यक बृहद् वृत्ति में जिनशासन का भक्त ऐसा गृहस्थ श्रावक कहलाता है। इस प्रकार आगम में श्रावक शब्द की भिन्न व्याख्याएँ मिलती है। रत्नशेखरसूरि रचित श्राद्धविधि प्रकरण में 'श्रावक' की व्याख्या के साथ उसके प्रत्येक अक्षर पर व्युत्पत्ति भी मिलती है वह इस प्रकार स्रवन्ति यस्य पापानि पूर्वबद्धान्यनेकशः। आवृतश्च व्रतैर्नित्यं, श्रावकः सोऽभिधीयते॥ संपत्तदसणाई, पइदियह जइजणाओ निसुणेइ। सामायारिं परमं, जो खलू तं सावगं बिंति॥ श्रद्धालुतां श्राति पदार्थचिन्तनाद्धनानि पात्रेषु वपत्यनारतम्। किरत्यपुण्यानि सुसाधु सेवनादतोऽपि तं श्रावकमाहुरुत्तमाः॥ यद्वा श्रद्धालुतां श्राति श्रृणोति शासनं, दानं वपत्याशु वृणोति दर्शनम्। कृतत्यपुण्यानि करोति संयम, तं श्रावक प्राहुरमी विचक्षणाः॥ 'श' और 'स' इन दोनों को समान मानकर श्रावक शब्द का अर्थ इस प्रकार है। प्रथम सकार मानकर 'स्रवति अष्ट प्रकारं कर्मेति श्रावकः' अर्थात् दान, शील, तप और भावना इत्यादि शुभ योग से जो आठ कर्मो का क्षय करे वह श्रावक है। दूसरा शकार मानकर 'श्रुणोति यतिभ्यः समाचारीमिति श्रावकः' अर्थात् साधु के पास से सम्यक प्रकार से समाचारी सुने वह श्रावक कहलाता है। ये दोनों अर्थ भाव की अपेक्षा से ही हैं। कहा है कि जिसके पूर्व संचित अनेक पाप क्षय होते है, अर्थात् जीवप्रदेश से बाहर निकल जाते है और जो अनवरत व्रतों के पालन में तन्मय हुआ है वही श्रावक कहलाता है। तथा जो पुरुष सम्यक्त्वादिक की प्राप्ति कर नितप्रति मुनिराज के पास उत्कृष्ट समाचारी सुनता है उसे बुद्धिमान मनुष्य श्रावक कहते है / यही बात आचार्य हरिभद्रसूरि ने “श्रावक प्रज्ञप्ति' में उल्लिखित की है, और इससे मिथ्यात्वी का व्यवच्छेद होता है। जो पुरुष श्रा' अर्थात् सिद्धांत के पद के अर्थ का चिन्तन कर अपनी आगम ऊपर की श्रद्धा परिपक्क करे. 'व' अर्थात् नित्यसत्कार्य में धन का सद्व्यय करे तथा 'क' अर्थात् श्रेष्ठ मुनिराज की सेवा करके अपने दुष्कर्मो का नाश कर डाले यानि खपावे, इसी कारण विचक्षण पुरुष उसे श्रावक कहते है। अथवा जो पुरुष 'श्रा' अर्थात् पद का अर्थ चिन्तन मनन करके प्रवचन पर श्रद्धा दृढ़ करे, तथा सिद्धांत श्रवण करे। 'व' अर्थात् सुपात्र [आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIII TA चतुर्थ अध्याय | 249
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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