________________ कार्मणरुप अभ्यंतर शरीर को ही तपाने से और सम्यग् दृष्टि से तप रूप में पहचाने जाने से प्रायश्चित्तादि छः प्रकार का अभ्यंतर तप है। बाह्य शरीर को भी तपाने से और मिथ्यादृष्टिओं से भी तप रुप में पहचाने जाने से अनशनादि छः प्रकार का बाह्य तप है। वह इस प्रकार है अणसणमणोयरिया वित्तीसखेवणं रसच्चाओ। कायकिलेसो संलीण-या य बज्झो तवो होइ। 1. अनशन - एकासना, बिआसना, आयंबिल, उपवास आदि। 2. ऊणोदरी - भूख से पाँच-सात कवल कम खाना। 3. वृत्तिसंक्षेप - आवश्यकता से कम वस्तु खाकर संतोषी होना। 4. रसत्याग - घी, दूध आदि विगईयों का त्याग करना। 5. कायक्लेश - लोचादि कष्ट सहन करना। 6. संलीनता - अंगोपांगों को संयम में रखना। पायच्छितं विणओ वेयावच्चं तहेव सज्झाओ। झाणं उस्सग्गो वि य अन्भिंतरओ तवो होइ॥" 1. प्रायश्चित्त - अतिचारों की गुरु के पास में आलोचना करके उसकी शुद्धि के लिए तपश्चर्या करना, दस प्रकार का प्रायश्चित्त है। 2. विनय - ज्ञान-दर्शन-चारित्र तथा शासन के दूसरे अंगों की तरफ भी हृदय की भक्ति से बहुमान रखना। यह अनेक प्रकार का है। 3. वैयावच्च - अरिहंत प्रभु तथा आचार्यादिक की सेवा भक्ति करना आदि 10 प्रकार का वैयावच्च है। 4. स्वाध्याय - पढ़ना, पढ़ाना, पुनरावर्तन, प्रश्न पूछने, समाधान करना, धर्मोपदेश देना आदि पाँच प्रकार का स्वाध्याय है। 5. ध्यान - पाँच प्रकार का धर्मध्यान और चार प्रकार का शुक्लध्यान। 6. कायोत्सर्ग - कर्मक्षय के लिए पाँच, दस आदि लोगस्स का कायोत्सर्ग करना। मन, वचन, काया को बाह्यभाव से वोसिराना। 7. वीर्याचार - वीर्य यानि शक्ति, पराक्रम / उपरोक्त आचारों को शक्ति पूर्वक पालना। अणिगूहियबलविरिओ, परक्कमइ जो जहुत्तमाउत्तो। जुंजइ य जहाथामं, णायव्वो वीरियायारो / / 31 / / जो जीव बल और वीर्य को छुपाये बिना उपयोग पूर्वक आगमोक्त विधि से धर्म क्रिया में प्रवृत्ति करता है और यथाशक्ति अर्थात् शक्ति का उल्लंघन किये बिना आत्मा को धर्म क्रिया में जोड़ता है वह जीव वीर्याचार है। यहाँ भी जीव की प्रवृत्ति वीर्याचार होने पर आचार और आचारवान् के अभेद से जीव को ही वीर्याचार कहा है। आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व / चतुर्थ अध्याय | 247]