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________________ 7. अर्थ - जिस सूत्र का जो अर्थ हो उस सूत्र का वैसा अर्थ ही करना। 8. तदुभय - सूत्र और अर्थ ये दोनों गलत न लिखना, न बोलना। (2) दर्शनाचार - दर्शन सम्बन्धी भी आठ आचार है। इससे सम्यग् दर्शन की शुद्धि होती है। निस्संकिय-निक्कंखिय-निव्वितिगिच्छा अमूढदिट्ठी अ। उववूहथिरीकरणे वच्छल्लप्पभावणे अट्ठ॥ 1. निःशंकित - जिन वचन में शंका नहीं करना। 2. निष्कांक्षित - अन्य दर्शन की इच्छा नहीं करना। 3. निर्विचिकित्सा - धर्म के फल की शंका नहीं करना। 4. अमूढदृष्टि - कुतीर्थिको की ऋद्धि, चमत्कार आदि देखकर मोहित नहीं होना। 5. उपबृंहणा - धर्मी के गुणों की प्रशंसा करना। 6. स्थिरीकरण - धर्म में प्रमाद करनेवालों को धर्म में स्थिर बनाना। 7. वात्सल्य - साधर्मिक का बहुमान पूर्वक कार्य करना। 8. प्रभावना - श्रुतज्ञान आदि से शासन प्रभावना करना। जिनवचन पर श्रद्धा होती है तब दर्शन के आचार संबंधी व्यवहार होता है। (3) चारित्राचार - चारित्र सम्बन्धी आचार वह चारित्राचार है / इसके आठ भेद बताये है। पणिहाणजोगजुत्तो पंचहिं समिइहिं तिहिं गुत्तीहिं। एस चरित्तायारो अट्ठविहो होइ नायव्वो॥ प्रणिधान अर्थात् मनकी शुभ एकाग्रता। योग यानि व्यापार मन की एकाग्रता रूप व्यापार या मनकी एकाग्रता की प्रधानतावाला व्यापार प्रणिधान योग। अथवा योग यानि मन का निरोध। प्रणिधान और मनो निरोध से युक्त वह प्रणिधानयोग युक्त।। ____ जो जीव पाँच समिति और तीन गुप्ति में प्रणिधान और योग से युक्त है। वह जीव आठ प्रकार के चारित्राचार वाला है। यहाँ पाँच समिति और तीन गुप्ति - ये आठ चारित्राचार होने पर भी आचार आचारवान् के अभेद से पाँच समिति और तीन गुप्ति से युक्त जीव को चारित्राचार कहा है। इस गाथा की उक्त व्याख्या वृद्ध पुरुषों ने की है। दूसरे इसकी व्याख्या इस प्रकार करते है / प्रणिधान और योग से युक्त तथा समिति आदि से पहचाने जानेवाला आचार चारित्राचार है। इस व्याख्या में 'एष' पद से जीव नहीं किन्तु आचार का ग्रहण किया है। (4) तपाचार - जो जीव सर्वज्ञ प्रणीत छः प्रकार का अभ्यंतर और छः प्रकार का बाह्य - इस प्रकार बारह प्रकार के तप में खेद रहित, निःस्पृहता से प्रवृत्ति करता है। वह जीव बारह प्रकार का तप है। यहाँ जीव के द्वारा किया जाता हुआ तप तपाचार होने पर भी आचार और आचारवान् में अभेद सम्बन्ध होने से तपाचार है। | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व KI याय | 246
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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