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________________ आचार्य हरिभद्रसूरि ने धर्मबिन्दु आदि में इनके भेदों के साथ प्रभेदों का भी समुल्लेख किया है। जिसका वर्णन आगे करेंगे। 'तथा ज्ञानाद्याचार कथनमिति।'२६ ज्ञानदर्शन चारित्रतपोवीर्याचार विषयाः, पञ्चविधः, पञ्चप्रकारः, स चाचारः, पुनः विज्ञेयो ज्ञातव्य इति।२७ 'दशवैकालिक नियुक्ति' में भी ये पाँच भेद आचार के बताये है। दसणनाणचरित्ते तवआयरो वीरियायारे। एसो भावायारो पंचविहो होइ नायव्वो।।२८ आचार के पाँच प्रकार है - ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार। प्रायः सभी जगह इसी क्रम से आचार का वर्णन मिलता है। लेकिन दशवैकालिक नियुक्ति में नियुक्तिकार ने दंसण अर्थात् 'दर्शनाचार' को प्रथम और ज्ञानाचार' को द्वितीय क्रम में लिया है। लेकिन वहाँ उसका कोई विशेष कारण स्पष्ट नहीं किया है। लेकिन इसका कारण यह हो सकता है कि छद्मस्थ आत्माओं को प्रथम दर्शन (श्रद्धा) में स्थिर करने के लिए दर्शनाचार के अतिचार बताये जाते है। प्रथम उन्हें सामान्य बोध ही होता है। तत्पश्चात् ज्ञान का बोध सुस्थिर बनता है। इसलिए उमास्वामि म.सा. ने भी तत्त्वार्थ सूत्र' में प्रथम दर्शन ही कहा है / जैसे कि - सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्ष मार्गः।२९ सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र ही मोक्ष मार्ग है। इन्होंने भी यहाँ छद्मस्थ जीवों की अपेक्षा से ही प्रथम दर्शन को ग्रहण किया है। . इसके प्रभेदों का वर्णन आचार्य हरिभद्रसूरि ने विस्तार से अपने ग्रन्थों में किया है। . (1) ज्ञानाचार - ज्ञानादि आचार संबंधी छोटे-बड़े अतिचारों की आलोचना करनी चाहिए, क्योंकि जीवन के कार्य कलापों में अनेक प्रकार से ज्ञान की आशातना होती है। अतः अतिचारों की संभावना रहती है। शास्त्रों में ज्ञान के आचार के आठ भेद बताये है। वे इस प्रकार है - काले विणए बहुमाणे, उवहाणे तह य अनिण्हवणे। वंजण अत्थतदुभए, अट्ठविहो नाणमायारो। 1. काल - स्वाध्याय के समय स्वाध्याय करना यह काल संबंधी आचार है। अकाल में पढ़ने से उपद्रव होते है। 2. विनय - ज्ञान, ज्ञानी और ज्ञान के पुस्तकों आदि साधनों का उपचार रूप विनय करना। 3. बहुमान - ज्ञान, ज्ञानी और ज्ञान के साधनों पर आंतरिक प्रेम, बहुमान भाव होना। 4. उपधान - तप पूर्वक अध्ययन उद्देशा आदि का अभ्यास करना। 5. अनिह्नव - श्रुत का या श्रुतदाता गुरु का अपलाप नहीं करना। 6. व्यञ्जन - सूत्रों और अक्षरों जैसे हो वैसे लिखना अर्थात् गलत लिखना या बोलना नहीं। [आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व / ध्याय | 245
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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