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________________ है। वही दशा अन्य ज्ञानों की भी होगी / दूसरे यदि वह ज्ञान को जाननेवाला द्वितीय ज्ञान स्वयं अपने स्वरुप का प्रत्यक्ष नहीं करता तो उससे प्रथम अर्थज्ञान का प्रत्यक्ष नहीं हो सकेगा। यदि उसका प्रत्यक्ष किसी तृतीय ज्ञान से माना जाय तो अनवस्था दूषण होगा। यदि द्वितीय ज्ञान को स्वसंवेदी मानते है तो प्रथम ज्ञान को ही संवेदी मानने में क्या बाधा है ? __ “शास्त्रवार्ता समुच्चय' के उपर लघुहरिभद्र नाम से प्रसिद्ध उपाध्याय यशोविजयजी म. ने विशाल 'स्याद्वाद कल्पलता' टीका लिखकर उसके हार्द को साहित्य जगत में प्रकाशित किया है। उपाध्यायश्री ने भी प्रकाशता पर अपने विचार इस प्रकार व्यक्त किये है कि- आलोक का प्रत्यक्ष अन्य आलोक के बिना ही हो जाता है। उसी प्रकार ज्ञान का संवेदन भी किसी अन्य ज्ञान आदि नियामक हेतु के बिना ही उसके अपने सहज स्वभाव से ही सम्पन्न हो सकता है। इसके अतिरिक्त ज्ञान की दो शक्तियाँ होती है। एक स्वयं ज्ञान को प्रकाशित करनेवाली और दूसरी विषय को प्रकाशित करनेवाली। अतः प्रत्येक ज्ञान अपनी इन स्वाभाविक शक्तिओं से अपने विषय और अपने स्वरुप दोनों का ग्राहक हो सकता है।११७ महामान्य वादिदेवसूरि अपने युग के एक अप्रतिम महा विद्वान् थे। उन्होंने “प्रमाण नय तत्त्वालोक' में ज्ञान को स्व और पर का प्रकाशक प्रतिबोधक और प्रमाणभूत स्वीकार किया है - ‘स्वपर व्यवसायि ज्ञानं प्रमाणम्।"११८ अपनी ही आत्मा ज्ञान का स्वरुप है और अपने से अन्य अर्थ पदार्थ का विनिर्णय भी ज्ञान है। इस प्रकार ज्ञान को सारगर्भित सदैव उपयोगी सर्वमान्य बनाने का सुप्रयास जैनाचार्यों ने किया है। . अपने व्यवसाय को सन्मुखता से प्रकाशन करना और अन्य के भावों का भव्य अर्थ निरूपित करने का शील ज्ञान में ही गंभीर रूप से पाया जाता है। इसलिए ज्ञान स्वात्म प्रकाशक रूप से प्रसिद्ध हो चुका है। उपाध्याय यशोविजयजी म.सा. ने भी ‘तर्कभाषा' में “स्वपर व्यवसायि ज्ञानम् प्रमाणम्” पर विश्लेषण किया है। उनका कथन है कि वैसे तो प्रत्येक ज्ञान स्व-पर उभय का ज्ञान करानेवाला होता है। अतः “व्यवसायि ज्ञान प्रमाणम" इतना लक्षण भी पर्याप्त हो सकता था। लेकिन मीमांसक ज्ञान को परोक्ष मानते है उसका निरसन करने के लिए 'स्व' पद रखा है। अर्थात् 'पर' के साथ 'स्व' का भी बोध करता है तथा 'पर' शब्द द्वारा ब्रह्माद्वैतवाद, ज्ञानाद्वैतवाद एवं शब्दाद्वैतवाद का खंडन किया है तथा शून्यवादी माध्यमिकमत का खंडन स्व और पर दोनों द्वारा किया है।११९ / / - ज्ञान को प्रकृति का धर्म मानकर अचेतन मानने वाले सांख्यों के दुरभिप्राय का निराकरण करने के लिए ज्ञान को 'स्वपरव्यवसायि' सिद्ध किया है। बौद्धों ने 'प्रमाणं अविसंवादि ज्ञानम्' ज्ञान अविसंवादि है ऐसा अर्थ किया है। बिना वाद-विवाद से होनेवाला ज्ञान प्रमाणभूत माना है। जब कि आचार्य श्री हरिभद्र ने जैनागमों के अनुसार ज्ञान को ही स्वयं में प्रकाश स्वरूप और पदार्थ को प्रकाशित करने में स्वीकारा है। जैन दार्शनिकों ने ज्ञान की आविष्कृति परिष्कृति | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIII तृतीय अध्याय | 231]
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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