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________________ बहुत ही सूक्ष्मता से और सारभूतता से संपादित की है। ___ वैभाषिक मत के अनुयायी बौद्ध विद्वान् ज्ञान को “बोध प्रमाणम्' इस परिभाषा से पुरस्कृत करते है। परन्तु जैन दर्शनकारों ने ज्ञान को सार्वभौमिक स्वीकार किया है। मीमांसक आदि मान्यताओं का निरसन करने के लिए और ज्ञान के स्व प्रकाश्य की सिद्धि के लिए जैन दर्शन ने अनुमान प्रमाण दिया है - ज्ञानं स्वव्यवसायि परव्यवसायित्वान्यथाऽनुपपत्तेः प्रदीपवत्। जो स्व को नहीं जान सकता वह पर का ज्ञान नहीं करा सकेगा। पर का वही ज्ञान करा सकता है जो स्व को जान सकता है। जिस प्रकार प्रदीप, इस बात से सिद्ध होता है कि प्रत्येक ज्ञान स्वपर उभय का निर्णायक होता ही है।१२० इस प्रकार युक्तियुक्त प्रयोगों से आचार्य श्री हरिभद्रसूरि के अनुसार ज्ञान हमेशा स्वपर व्यवसायि रूप से प्रख्याति वाला पूर्ण रूप से हमें मान्य रहा है। हमारा ज्ञान इस प्रकार से 'स्व' और 'पर' के साथ जीवन का साथी भी बन सकता है। ज्ञान आत्मा के साथ निरन्तर रहने वाला निर्मल निश्चय देने वाला महत्त्वपूर्ण महान् उपयोगी उपकारी चरितार्थ हआ। प्रमाण - जो ज्ञान अपने आप में अद्वितीय है, वह भी प्रमाण से प्रिय बनता है, अभिमत माना जाता है। आचार्यप्रवर हरिभद्रसूरि ने ‘षड्दर्शन-समुच्चय' में ज्ञान को प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाण से अभिव्यक्त किया है। अपरोक्षतयार्थस्य ग्राहकं ज्ञानमीदृशम्। प्रत्यक्षमितरज्ज्ञेयं परोक्षं ग्रहणेक्षया॥१२१ आचार्य हरिभद्र स्वयं प्रत्यक्ष एवं परोक्ष के लक्षण को बताते हुए कहते है कि - पदार्थों को अपरोक्ष स्पष्ट रुप से जाननेवाला ज्ञान प्रत्यक्ष कहलाता है। प्रत्यक्ष से भिन्न अस्पष्ट ज्ञान परोक्ष है। ज्ञान में परोक्षता बाह्यपदार्थ के ग्रहण की अपेक्षा से ही है, क्योंकि स्वरूप से तो सभी ज्ञान प्रत्यक्ष ही है। ज्ञान प्रमाण से ही प्रमाणित बनता है तथा वस्तु की अनन्त धर्मात्मकता भी प्रमाण से प्रमेय बनती है, सी विषय को आचार्य हरिभद्र ने षड्दर्शन में स्पष्ट उल्लेख किया है - ____ जिस कारण से उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यवाली वस्तु ही सत् होती है। इसीलिए पहले अनन्त धर्मात्मक पदार्थ को प्रमाण का विषय बताया है। जिस प्रकार आचार्य हरिभद्रने ज्ञान को प्रमाण सहित गौरवान्वित किया है वैसे ही जैन दर्शन को परस्पर निर्विरोध प्ररूपित किया है, प्रमाण के तुल्य ही गिना है। जैनदर्शनसंक्षेप इत्येष गदितोऽनघः। पूर्वापरपराघातो यत्र क्वापि न विद्यते // 1222 इस तरह सर्वथा निर्दोष जैन दर्शन का संक्षेप से कथन किया है। इनकी मान्यताओं में कहीं भी पूर्वापर विरोध नहीं है। | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व II तृतीय अध्याय | 232
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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