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________________ अपने ही प्रत्यक्ष नहीं हो जाता। अपने ही द्वितीय ज्ञान के द्वारा उसका प्रत्यक्ष मानकर उससे अर्थबोध करने की कल्पना इसलिए उचित नहीं है कि कोई भी योगी अपने योग्यज प्रत्यक्ष के द्वारा हमारे ज्ञान को प्रत्यक्ष कर सकता है। जैसे कि हम स्वयं अपने द्वितीय ज्ञान के द्वारा प्रथम ज्ञान का, पर इतने मात्र से वह योगी हमारे ज्ञान से पदार्थों का बोध नहीं कर लेता। उसे तो जो भी बोध होगा स्वयं अपने ही ज्ञानद्वारा होगा। तात्पर्य यह है कि हमारे ज्ञान में यही स्वकीयत्व है जो वह स्वयं अपना बोध करता है और अपने आधारभूत आत्मा से तादात्म्य रखता है। यह संभव ही नहीं है कि ज्ञान उत्पन्न हो जाय अर्थात् अपनी उपयोग दशा में आ जाय और आत्मा या स्वयं को उसका ख्याल भी न आये। वह दीपक का सूर्य के सदृश स्वयंप्रकाशी ही उत्पन्न होता है। वह पदार्थ के बोध के साथ स्वयं का भी संवेदन करता है। अर्थात् इसके लिए दीपक से बढ़कर सम दृष्टांत दूसरा नहीं हो सकता, दीपक को देखने के लिए दूसरे दीपक की आवश्यकता नहीं होती। भले ही वह पदार्थों को मन्द या स्पष्ट दिखावे, पर अपने रुप को तो जैसा का तैसा ही प्रकाशित करता है। उसी प्रकार कोई भी उपयोगात्मक ज्ञान अज्ञात नहीं रह सकता / वह तो जगाता हुआ ही उत्पन्न होता है। __ यदि ज्ञान को परोक्ष माना जाय तो उसका सदभाव सिद्ध करना कठिन हो जायेगा। अर्थ प्रकाशन रुप हेतु से उसकी सिद्धि करने में अनेक विघ्न आ जायेंगे। सर्व प्रथम तो अर्थप्रकाशक स्वयं ज्ञान है। अतः जब तक अर्थ प्रकाशक अज्ञात है तब तक उसके द्वारा मूलज्ञान की सिद्धि अशक्य है। यह एक सर्वमान्य सिद्धान्त है कि“अप्रत्यक्षोपलम्बस्य नार्थसिद्धि प्रसिध्यति" अर्थात् अप्रत्यक्ष-अज्ञात ज्ञान के द्वारा अर्थसिद्धि नहीं होती। नाज्ञातं ज्ञापकं नाम - स्वयं अज्ञात दूसरे का ज्ञापक नहीं हो सकता। यह भी सर्वमान्य सिद्धान्त है। अतः सबसे पहले अर्थप्रकाशक का ज्ञान अत्यावश्यक है। यदि अज्ञात या अप्रत्यक्ष ज्ञान के द्वारा अर्थ बोध माना जाता है तो सर्वज्ञ के ज्ञान के द्वारा हमें सर्वार्थज्ञान होना चाहिए। हमे ही क्यों, सबको सब के ज्ञान के द्वारा अर्थबोध हो जाना चाहिए। अतः ज्ञान को स्वसंवेदी माने बिना ज्ञान का सद्भाव तथा उसके द्वारा प्रतिनियत अर्थबोध नहीं हो सकता। अतः यह आवश्यक है कि उसमें अनुभवसिद्ध आत्मसंवेदित्व स्वीकार किया जाय। __नैयायिक के ज्ञान को ज्ञानान्तरवेद्य मानना उचित नहीं है, क्योंकि इसमें अनवस्था नामक महादूषण आता है, जब तक एक भी ज्ञान स्वसंवेदी नहीं माना जाता तब तक पूर्व-पूर्व ज्ञानों का बोध करने के लिए उत्तरउत्तर ज्ञानों की कल्पना करनी ही होगी। क्योंकि जो भी ज्ञानव्यक्ति अज्ञात रहेगी वह स्वपूर्व ज्ञान व्यक्ति की वेदिका नहीं हो सकती। और इस तरह प्रथम ज्ञान के अज्ञात रहने पर उसके द्वारा पदार्थ का बोध नहीं हो सकेगा। एक ज्ञान के जानने के लिए ही जब इस तरह अनन्त ज्ञान प्रवाह चलेगा तब अन्य पदार्थों का ज्ञान कब उत्पन्न होगा? थक करके या अरुचि से या अन्य पदार्थ के सम्पर्क से पहली ज्ञानधारा को अधूरी छोड़कर अनवस्था का वारण इसलिए युक्ति युक्त नहीं है कि जो दशा प्रथमज्ञान की हुई है जैसे वह बीच में ही अज्ञात दशा में लटक रहा [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIN MA तृतीय अध्याय 2300
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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