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________________ केसिंचि इंदिआई, अक्खाइं तदुवलद्धि पच्चक्खं / तं नो ताई जमचेअणाई, जाणंति न छडोव्व // 100 कुछ वैशेषिक दर्शनवाले 'अक्ष' अर्थात् इन्द्रिय कहते है। लेकिन अक्ष का अर्थ जीव नहीं स्वीकारते है। इसी से वे इन्द्रियों के द्वारा साक्षात् घटादि पदार्थों की उपलब्धि ज्ञान उसे प्रत्यक्ष कहते है। और उसके सिवाय अन्य को परोक्ष मानते है। लेकिन उनका यह कथन उचित नहीं है। क्योंकि घटादि के समान इन्द्रियाँ अचेतन होने से वस्तु के स्वरूप को जान नहीं सकती है। व्यतिरेक व्याप्ति भी ऐसी बनती है कि जो-जो अंचेतन है वे वे घटादि के समान वस्तु के स्वरूप नहीं जान सकते है। इन्द्रियाँ भी अचेतन है। अतः उनको ज्ञान कैसे हो सकता है और यदि इन्द्रियों से ज्ञान ही जब नहीं होता तो इन्द्रियों से होनेवाले ज्ञान को प्रत्यक्ष कैसे कह सकते है ? इन्द्रियाँ तो मूर्तिमान और स्पर्शादि सहित होने से ज्ञानशून्य है। प्रत्यक्ष ज्ञान दो प्रकार का नन्दिसूत्र' में कहा है - से किं तं पच्चक्खं / पच्चक्खं दुविहं पण्णतं तं जहा इंदियपच्चक्खं, नोइंदियपच्चक्खं च।१०१ प्रत्यक्ष दो प्रकार का है। (1) इन्द्रिय प्रत्यक्ष (2) नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष। किसी भी अन्य की अपेक्षा के बिना स्वयं की अपनी निजी शक्ति से जानना प्रत्यक्ष कहलाता है। अक्ष के दो अर्थ होते है - इन्द्रिय और अनिन्द्रिय (आत्मा) इसी से प्रत्यक्ष के दो भेद है। इन्द्रिय प्रत्यक्ष - अन्य किसी की सहायता के बिना स्व इन्द्रिय से जानना इन्द्रिय प्रत्यक्ष है। . अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष - दूसरे किसी सहायता के बिना स्व आत्मा से जानना अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष है। इन्द्रिय प्रत्यक्ष के पाँच भेद है। (1) श्रोतेन्द्रिय प्रत्यक्ष (2) चक्षुरिन्द्रिय प्रत्यक्ष (3) घ्राणेन्द्रिय प्रत्यक्ष (4) जिह्वेन्द्रिय प्रत्यक्ष तथा (5) स्पर्शेन्द्रिय प्रत्यक्ष। इन्द्रिय प्रत्यक्ष में किसी गुरु आदि से सुने-पढ़े बिना किसी लिंग, चिह्न आदि के संकेत से अनुमान किये बिना स्वयं की इन्द्रिय से पदार्थ विशेष को जानता है। वह इन्द्रिय प्रत्यक्ष कहलाता है। जैसे कि पर्वत की गुफा में रही हुई अग्नि को अपनी आँख से देखना इन्द्रिय प्रत्यक्ष है। लेकिन व्यक्ति विशेष के कहने से पर्वत में अग्नि को जाना तो यह ज्ञान सुनने से उत्पन्न हुआ अतः प्रत्यक्ष नहीं है, परोक्ष है। अथवा किसी स्थान पर पढ़ा कि पर्वत में आग लग गई, इस प्रकार अग्नि को जाना तो यह ज्ञान पढ़ने से हुआ, अतएव प्रत्यक्ष नहीं परोक्ष है, अथवा पर्वत में धुआँ उठ रहा है यह धूमरूप लिङ्ग को देखकर अग्नि का ज्ञान हुआ। अतः प्रत्यक्ष नहीं परोक्ष है। क्योंकि अनुमान से किया है। श्रोतेन्द्रिय आदि जो पाँच प्रत्यक्ष है उनका विषय शब्द रूप, गन्ध, रस और स्पर्श है। शरीर में जो श्रोत आदि पाँच द्रव्य इन्द्रियाँ दिखाई देती है। जिनकी सहायता से आत्मा शब्दादि का ज्ञान करती है, लेकिन वास्तव में इन्द्रियाँ जीव की अपनी नहीं परन्तु पर है, क्योंकि वे जीव से पर अजीव पुद्गल द्रव्यों से निर्मित है। अतएव आत्मा द्रव्य इन्द्रियों के निमित्त जो कुछ भी जानता है वह परमार्थ से प्रत्यक्ष नहीं है परन्तु व्यवहार में कर्म संयोग | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व / व तृतीय अध्याय | 2240
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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