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________________ के कारण आत्मा के साथ संलग्न होने से श्रोतादि इन्द्रियाँ पर' होते हुए भी 'स्व' मानी जाती है। इसी से उनके द्वारा होनेवाला ज्ञान भी व्यवहार में प्रत्यक्ष' माना जाता है। उस व्यवहार नय का ज्ञान करने के लिए शास्त्रकार ने यहाँ इन्द्रियजन्य ज्ञान को प्रत्यक्ष कह दिया है। लेकिन पारमार्थिक रूप से प्रत्यक्ष नहीं है। 102 अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष - अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष तीन प्रकार का शास्त्रों में बताया है - से किं तं नोइंदियपच्चक्खं - नोइंदियपच्चक्खं तिविहं पण्णतं तं जहा - ओहिनाण पच्चक्खं मणपज्जवनाणपच्चक्खं केवलणाणपच्चक्खं / 103 अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष के तीन भेद आगमों में मिलते है - (1) अवधिज्ञान प्रत्यक्ष (2) मनःपर्यव प्रत्यक्ष (3) केवलज्ञान प्रत्यक्ष किसी से सुने बिना, पढ़े बिना; किसी लिङ्ग, संकेत आदि से अनुमान किये बिना मात्र आत्मा से ही पदार्थ विशेष को जानना अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष है। जैसे कि गगन मंडल में सूर्य के उदय को आत्मा से ही जानना, कि सूर्य का उदय हो गया है। तो वह अनिन्द्रिय प्रत्यक्ष है। यदि किसी से सुना कि सूर्य का उदय हो गया है, अथवा कहीं पढ़ा कि सूर्य उदय हो गया है और उससे जाना कि सूर्य उदय हो गया, तो वह परोक्ष है अथवा सूर्य की किरणों को देखकर अनुमान लगाया कि सूर्य उदय हो गया है तो वह भी परोक्ष ही है, यहाँ तक अपनी आंखो से सूर्योदय को जानना भी परोक्ष है। परन्तु मात्र आत्मा से सूर्योदय जाना गया तो वही पारमार्थिक प्रत्यक्ष है। __ इन्द्रिय निमित्त और नोइन्द्रिय निमित्त इस पाठ से सिद्धान्त में मनोनिमित्त ज्ञान को प्रत्यक्ष कहा है, क्योंकि नोइन्द्रिय अर्थात् मन, वहाँ मन शब्द एकदेशवाची है और मन इन्द्रिय का एकदेश है। अतः मनोनिमित्त प्रत्यक्ष यह नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष हुआ वह परोक्ष कैसे हो सकता है ? यदि ऐसा कोई कहे तो वह योग्य नहीं है, क्योंकि ज्ञान के प्रसंग में नोइन्द्रिय शब्द में 'नो' शब्द का अर्थ एकदेशवाची नहीं है। परन्तु सर्वनिषेधवाची है उसी नोइन्द्रिय अर्थात् इन्द्रिय का सर्वथा अभाव यही अर्थ समझना होगा, लेकिन नोइन्द्रिय यानि मन यह अर्थ ग्राह्य नहीं होगा / अतः नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष अर्थात् इन्द्रियों की अपेक्षा रहित साक्षात् आत्मा को प्रत्यक्ष। अतः नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष में अवधि मनःपर्यव और केवलज्ञान जो सर्वथा इन्द्रिय तथा मन के बिना होते है उसी को लेना है न कि मन से होनेवाले ज्ञान। यदि हम नोइन्द्रिय से मन ऐसा अर्थ करेंगे, तो नोइन्द्रिय निमित्त यानि मनोनिमित्त प्रत्यक्ष ऐसा अर्थ होगा, जिससे अवधि आदि ज्ञान मन से उत्पन्न होनेवाले हो जायेंगे और वैसा होने से मनः पर्याप्ति से अपर्याप्त देव और मनुष्य को अवधिज्ञान घटित नहीं होगा, क्योंकि उस समय उनको मन का अभाव है। अतः आपकी यह मान्यता अयोग्य है कारण कि 'चुएमिति जाणइ' में च्यवित हो रहा हूं। “ऐसा महावीर भगवान जानते है।" इत्यादि सिद्धान्तोक्त प्रमाण से देवों को तथा दूसरे भी अवधिज्ञानवालों को अपर्याप्त अवस्था में अवधिज्ञान कहा है। (3) यदि मनोनिमित्त ज्ञान ही प्रत्यक्ष रूप में स्वीकारे तो सिद्धों में प्रत्यक्ष का सर्वथा अभाव मानना पडेगा। क्योंकि उनके मन नहीं होता है। | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIN तृतीय अध्याय | 225
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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