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________________ मतिज्ञान, श्रुतज्ञान तथा अवधिज्ञान में हो जाते है। अतः लाभ से भी इनका साधर्म्य है। अर्थात् उस सम्यग्दृष्टि देव को तीनों अज्ञान, ज्ञानरूप में परिणत हो जाते है। . अवधिज्ञान के बाद मनःपर्यवज्ञान का प्रयोजन अवधिज्ञान और मनःपर्यवज्ञान का चार कारणों से साधर्म्य होने से (1) छद्मस्थ (2) विषय (3) भाव (4) प्रत्यक्षत्व। (1) छद्मस्थ - अवधिज्ञान जिस प्रकार छद्मस्थ को होता है। वैसे ही मनःपर्यवज्ञान भी छद्मस्थ को ही होता है। अतः दोनों के स्वामी समान है। (2) विषय - अवधिज्ञान पुद्गल मात्र को विषय बनाती है। उसी प्रकार मनः पर्यवज्ञान भी पुद्गल मात्र को ही विषय बनाता है। (3) भाव - दोनों ज्ञान क्षायोपशमिक भाव में वर्तते है। (4) प्रत्यक्ष - दोनों ज्ञान इन्द्रियों एवं द्रव्यमन के बिना आत्मा से ही होते है। अर्थात् साक्षात्दर्शी होने से प्रत्यक्ष साधर्म्य वाले भी है।९३ . ___ इन्हीं कारणों के कारण अवधि के बाद मनः पर्यवज्ञान कहा गया है। तत्त्वार्थ हारिभद्रीयवृत्ति,९४ धर्मसंग्रहणी,५ विशेषावश्यकभाष्य 6 आदि में भी इनका साधर्म्य मिलता है। केवलज्ञान अंतिम क्यों ? अतीत अनागत और वर्तमान तीनों कालों में विद्यमान वस्तुएँ और उनके सभी पर्याय के स्वरूप को जानने के कारण केवलज्ञान सर्वोत्तम है। उससे उसका उपन्यास अंत में किया है, अथवा मनःपर्यायज्ञान का स्वामी अप्रमत्त यति है, उसी प्रकार केवलज्ञान के स्वामी भी अप्रमत्त यति है। इस प्रकार स्वामित्व की सादृश्यता के कारण भी मनःपर्यव के बाद केवलज्ञान कहा है, तथा सभी ज्ञानों के बाद अन्तिम केवलज्ञान होता है। अतः उसे अन्तिम रखा गया है।९७ ___मति आदि पाँच ज्ञानों में आदि के दो मति और श्रुत परोक्ष है और शेष अवधि, मनःपर्यव और केवलज्ञान प्रत्यक्ष है। इस प्रकार संक्षेप से इन पांचों ज्ञानों का दो भेद में समावेश हो सकता है। प्रत्यक्ष और परोक्ष। दो भेदों का प्रमाण आगम शास्त्रों में भी मिलता है। दुविहे नाणे पन्नते / तं जहा पच्चक्खे चेव परोक्खे चेव।१८ तं समासओ दुविहं पन्नत्तं पच्चक्खं च परोक्खं च।९९ प्रत्यक्षज्ञान - अर्थव्यापन अर्थात् अर्थ के अनुसार आत्मा ज्ञानादि सभी पदार्थों में व्याप्त है तथा तीनों लोकों में स्थित देवलोक की समृद्धि आदि अर्थों को भोगने से वह अक्ष (जीव) कहा जाता है। उसके प्रति साक्षात् इन्द्रिय और मन से रहित जो ज्ञान प्रवृत्त होता है वह प्रत्यक्षज्ञान है। अर्थात् साक्षात् आत्मा से होनेवाला ज्ञान प्रत्यक्ष है और वे तीन है - अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान। वैशेषिक आदि मतवाले ‘अक्ष' का अर्थ इन्द्रिय कहते है और इन्द्रिय से उत्पन्न होनेवाले ज्ञान को प्रत्यक्ष कहते है। | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIII TA तृतीय अध्याय | 223]
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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