________________ सभी ज्ञानों में मति और श्रुत आदि में क्यों ? यह प्रश्न स्वाभाविक हो सकता है। उसका समाधान आचार्यश्री ने बहुत ही सूक्ष्मता से दिया है एवं अल्प शब्दों में गंभीरार्थ प्रस्फुटित किया है। जैसा कि नन्दी हारिभद्रीय वृत्ति में - ___ "इह स्वामिकालकारणविषयपरोक्षत्वसाधर्म्यात् तद्भावे चशेषज्ञानभावादादावेव मतिश्रुतज्ञानयोरुपन्यास इति॥१० स्वामि, काल, कारण, विषय और परोक्षत्व का साधर्म्य होने से तथा उसके सद्भाव में शेष ज्ञान होते है। अतः मतिश्रुत को सभी ज्ञानों के पहले रखा है। तथा तीनों काल में किसी भी जीवात्मा को मति-श्रुत ज्ञान होता ही है। उसी से मति और श्रुत की उपस्थिति यदि हो तो ही अवधिज्ञान उत्पन्न होता है। अन्यथा नहीं। अतः मति श्रुत को आदि में अपना स्थान मिला है। उसमें भी मति को प्रथम स्थान और श्रुत को द्वितीय स्थान / क्योंकि शास्त्रों का कथन है कि मतिपूर्वक ही श्रुतज्ञान होता है। अथवा मतिज्ञान का विशिष्ट भेद ही श्रुतज्ञान है। इसी कारण से मतिज्ञान को प्रथम रखा गया है। मइपुव्वं जेणसुयं तेणाईए मई विसिट्ठो वा। मइभेओ चेव सुयं तो मइ समणंतरं भणियं / / 11 आचार्य श्री हरिभद्रसूरि रचित 'धर्मसंग्रहणी' तथा धर्मसंग्रहणी की टीका में भी इसके स्वरूप का प्रतिपादन इसी प्रकार किया गया है। आचार्य श्री हरिभद्र के साहित्य की विशेषता है कि अल्पाक्षरों में बहुत कुछ कह देते है। अवधिमनःपर्यव के क्रम में प्रयोजन - मतिश्रुत का चार कारणों से अवधिज्ञान के साथ साधर्म्य है। उसीसे मतिश्रुत के बाद तुरन्त अवधिज्ञान का उपन्यास किया है। (1) काल - सभी जीवों की अपेक्षा से अथवा एक जीव की अपेक्षा से मतिश्रुत की जो कालस्थिति है वही अवधिज्ञान की भी है। जैसे कि एक जीवन की अपेक्षा साधिक छासठ सागरोपम मति श्रुत का है, उतना ही अपतितपरिणामी अवधिज्ञानवाले एक जीव का भी काल है। (2) विपर्यय - जिस प्रकार सम्यग् दर्शन की उपस्थिति में मतिज्ञान और श्रुतज्ञान होते है वे ही मिथ्यात्व के उदय में मति-अज्ञान, श्रुत अज्ञान रूप में विपर्यय को प्राप्त करते है। उसी प्रकार अवधिज्ञान भी विभंगज्ञानरूप में परिवर्तित होता है। जिससे विपर्यय की अपेक्षा से दोनों में साधर्म्य है। “आद्यत्रयमज्ञानमपि भवति मिथ्यात्वसंयुक्तमिति // "92 मिथ्यात्व से संयुक्त होने पर आदि के तीनों ज्ञान, अज्ञानरूप में परिणत हो जाते है। (3) स्वामी - मति श्रुतज्ञान के जो स्वामी है वे ही अवधिज्ञान के भी स्वामी है। (4) लाभ - इन तीनों ज्ञानों का लाभ भी एक साथ ही होता है, क्योंकि मिथ्यात्व के कारण विभंगज्ञानवाले देवादि को जब सम्यक्त्व प्राप्त होता है तब मति अज्ञान, श्रुत अज्ञान और विभंगज्ञान ये तीनों | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIIIIIA तृतीय अध्याय 222 )