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________________ ने 'धर्मसंग्रहणी' एवं नन्दीहारिभद्रीय वृत्ति में बहुत ही सुंदर रूप से किया है। जं सामिकालकरण विसय परोक्खत्तणेहि तुल्लाई। तब्भावे सेसाणि य, तेणाइए मतिसुताई।८६ मतिज्ञान और श्रुतज्ञान - (1) स्वामी (2) काल (3) कारण (4) विषय (5) परोक्षत्व - इन पाँच कारणों से समान है। (1) स्वामी - मतिज्ञान के जो स्वामी है वे ही श्रुतज्ञान के स्वामी है और श्रुतज्ञान के जो स्वामी है वे ही मतिज्ञान के स्वामी है क्योंकि कहा - जत्थ मइनाणं तत्थ सुयनाणं। जत्थ सुयनाणं तत्थ मइनाणं // 7 जहाँ मतिज्ञान होता है वहाँ श्रुतज्ञान होता है और जहाँ श्रुतज्ञान होता है वहाँ मतिज्ञान होता है। (2) काल - मतिज्ञान का जितना स्थितिकाल है उतना ही श्रुतज्ञान का है, प्रवाह की अपेक्षा से अतीत, अनागत और वर्तमान रूप सम्पूर्ण काल मतिश्रुत का है। अर्थात् तीनों काल में मति-श्रुत विद्यमान है। एक जीव में सतत अपतितभाव की अपेक्षा साधिक छासठ सागरोपम होता है। जैसे कि - दो वारे विज़याइसुं, गयस्स तिन्नऽच्चुते अहव ताई। अरेगं नरभवियं, णाणा जीवाणं सव्वद्धं // 88 दो वार विजयादि में (सर्वार्थसिद्ध के सिवाय चार अनुत्तर में) जहाँ 33 सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति है अथवा तीनबार अच्युतादि में (१२मां देवलोक में) जहाँ 22 सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति है। वहाँ गये जीव को मनुष्य भव के काल को जोड़ने पर साधिक “सागरोपम मति-श्रुत होता है और सभी जीव की अपेक्षा से हमेशा होता है। (3) कारण - जिस प्रकार मतिज्ञान इन्द्रियों के द्वारा उत्पन्न होता है उसी प्रकार श्रुतज्ञान भी इन्द्रियों के निमित्त से होता है। अथवा जिस प्रकार मतिज्ञान क्षयोपशमजन्य है उसी प्रकार श्रुतज्ञान भी क्षयोपशमजन्य है। (4) विषय - जिस प्रकार देश से मतिज्ञान का विषय सर्वद्रव्य विषयक है उसी प्रकार श्रुतज्ञान का विषय भी सर्वद्रव्य विषयक है। (5) परोक्षत्व - इन्द्रिय आदि के निमित्त से होने के कारण मतिज्ञान जिस प्रकार परोक्ष है वैसे ही श्रुतज्ञान भी परोक्ष है। क्योंकि द्रव्येन्द्रिय और द्रव्य पुद्गल स्वरूप होने से आत्मा से भिन्न है। कहा है कि जीवस्स पोग्गलभया जं दव्विंदिय मणा परा होति त्ति।९। पुद्गलमय द्रव्येन्द्रिय और द्रव्यमन जीवन से भिन्न है। उसी से यह इन्द्रिय और मन से होनेवाला ज्ञान धूम से अग्नि का अनुमान के समान परोक्ष है। अर्थात् धूम को देखकर अग्नि का ज्ञान अनुमान से हम करते है। अतः वह परोक्ष है। उसी प्रकार यहाँ इन्द्रिय और मन के द्वारा ज्ञान का बोध होने से यह भी परोक्ष है। | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व KIIN व तृतीय अध्याय | 221 ]
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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