________________ और उन आवरणों में रहे छिद्रों में भेद के कारण से सूर्य के उस मन्द प्रकाश में भी भिन्न-भिन्न भेद बन जाते है। वैसे ही आत्मा में स्वभाव से कोई भेद नहीं है। जब आत्मा, ज्ञानावरण से सर्वथा रहित हो जाती है तब वह समान रूप से सर्व क्षेत्र में स्थित सभी पदार्थों को जानती है। उसका यह ज्ञान केवलज्ञान' कहलाता है। किन्तु उसके ऊपर केवलज्ञानावरण कर्म आ जाता है। इससे उसका केवलज्ञान आच्छादित हो जाता है। परन्तु ज्ञान सर्वथा नहीं ढ़कता है मन्द ज्ञान अवश्य रहता है। वह मन्द ज्ञान भी एक सा नहीं होता। मतिज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से जो मतिज्ञान रूप आत्मा में मन्दज्ञान प्रकट होता है वह भिन्न होता है। उसी प्रकार श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान के आवरणीय कर्मों के क्षयोपशम से आत्मा में जो मन्द रूप प्रकाश प्रकट होता है वह भिन्न होता है। कारण कि इन चारों के मन्द ज्ञान के आवरणों में और चारों आवरणों के क्षयोपशम में भिन्नता है। इन भिन्नता के कारण चारों भेद भिन्न-भिन्न है। इस प्रकार ज्ञान के पाँच भेद बनने का कारण आवरणों की विचित्रता और क्षयोपशम की विचित्रता है। 2. यह अनुभव सिद्ध है कि प्रत्येक जीव में ज्ञान की हानि-वृद्धि प्रत्यक्ष रूप से सभी को दिखती है। . इसमें मात्र कोई कारण हो तो ज्ञान की ज्ञप्ति में भिन्नता है। अभ्यास करनेवाले के जीवन में ज्ञान उत्कर्षता एवं न करनेवाले के जीवन में उसकी अपकर्षता ज्ञप्ति के विचलित स्वभाव के कारण ही उपलब्ध होती है। उसी से आगम प्रसिद्ध और परिस्थूल निमित्त भेदों से ज्ञान के आभिनिबोधिक भेद युक्त ही है। . 3. ज्ञानभेद में कारणभूत निमित्तभेद भी भिन्न-भिन्न है। जो ज्ञानादि गुणों का नाश करते है वे घाती कर्म कहलाते है। ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अंतराय - ये चारों घाति.कर्म है। केवलज्ञान की प्राप्ति में इन चारों कर्मों का सम्पूर्ण विच्छेद ही निमित्त है। क्योंकि इनका क्षय होते ही केवलज्ञान की प्राप्ति होती है। और आम!षधि आदि लब्धिओं में कारणभूत उस प्रकार का अप्रमत्त मनःपर्यायज्ञान का निमित्त है। अप्रमत्त मनःपर्याय वाले मुनि को ही ये लब्धियाँ उत्पन्न हो सकती है। ऐसा आगम में कहा है। अतीन्द्रिय ऐसे रूपी द्रव्यों के प्रति जो ज्ञान का क्षयोपशम वह अवधिज्ञान का निमित्त है। अर्थात् अवधिज्ञान होने पर भी अतीन्द्रिय रूपी द्रव्यों का बोध होता है। मतिज्ञान और श्रुतज्ञान के भेद लक्षणादि भेद से है, लक्षणादि भेद मति-श्रुत ज्ञान के निमित्त भेद है। इस प्रकार परिस्थूल भेदों से मति ज्ञानादि भेद युक्ति संगत है। केवलज्ञान सर्व विषयक होने पर भी परिस्थूल निमित्त भेदों से भेद होने के कारण मतिज्ञानादि पाँच ज्ञानों के ज्ञेय में विशेष भेद सिद्ध ही है। क्योंकि प्रत्येक वस्तु अपने-अपने धर्म से प्रतीत होती है। प्रसिद्ध होती है। जैसे कि वर्तमान काल भावी और स्पष्टरूपवाली वस्तु मतिज्ञान से ज्ञात होती है। जबकि अल्प स्वरूपवाली त्रिकालभावी वस्तु श्रुतज्ञान से ज्ञात होती है। इस प्रकार ज्ञेय विशेष भी ज्ञान के पाँच भेद को साधने में इष्ट है। बोध, विशेष भी पाँच भेदों की कल्पना को सत्य साबित करता है। क्योंकि मतिज्ञान में जो बोध होता है उससे भिन्न बोध श्रुतज्ञान में होता है। मतिज्ञानादि चार आत्मधर्मरूप होने से क्षीण आवरणवाले को भी होते है। लेकिन जिस प्रकार नक्षत्र, [आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व व तृतीय अध्याय | 218 ]