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________________ 'इसके अतिरिक्त अवधिज्ञान का तरतम रूप दिखाने के लिए देशावधि परमावधि एवं सर्वावधि इसके तीन भेद भी बताये है। देव, नारक, तिर्यंच और सागार मनुष्य इनको देशावधि ज्ञान ही हो सकता है। शेष दो भेद परमावधि और सर्वावधि मुनिओं को ही हो सकता है। ____ मनःपर्यवज्ञान - यह ज्ञान भी प्रत्यक्ष है - इसके दो भेद है। (1) ऋजुमति मनःपर्यवज्ञान (2) विपुलमति मनःपर्यवज्ञान। (1) ऋजुमति मनःपर्यवज्ञान - सामान्य से दो या तीन पर्यायों को ही ग्रहण कर सकता है। तथा इस ज्ञानवाला जीव केवल वर्तमानकालवर्ती जीव के द्वारा ही चिन्त्यमान पर्यायों को विषय कर सकता है, अन्य नहीं। (2) विपुलमति मनःपर्यवज्ञान - बहुत से पर्यायों को जान सकता है। तथा त्रिकालवर्ती मनुष्य के द्वारा चिन्तित, अचिन्तित, अर्ध चिन्तित ऐसे तीनों प्रकार के पर्यायों को जान सकता है। ऋजुमति मनःपर्यायज्ञान से विपुलमति मनःपर्यायज्ञान विशुद्धि और अप्रत्तिपाति इन कारणों से विशिष्ट है। क्योंकि ऋजुमति का विषय अल्प और विपुलमति का उससे अत्यधिक है। ऋजुमति जितने पदार्थों को जितनी सूक्ष्मता के साथ जान सकता है विपुलमति उसी पदार्थ को नाना प्रकार से विशिष्ट गुण पर्यायों के द्वारा अत्यंत अधिक सूक्ष्मता से जान सकता है। अतः विपुलमति की विशुद्धता निर्मलता ऋजुमति से अधिक है। इसी प्रकार ऋजुमति के विषय में यह नियम नहीं है कि वह उत्पन्न होकर न जाय, लेकिन विपुलमति के विषय में यह निश्चित नियम है कि जिस संयमी साधु को विपुलमति मनः पर्यायज्ञान प्राप्त होता है उसको उसी भव में केवलज्ञान प्रगट होकर मोक्षपद भी प्राप्त होता है। ये भेद तत्त्वार्थ हारिभद्रीय टीका,७६ तत्त्वार्थसूत्र, तर्कभाषा, में भी है। केवलज्ञान - परमार्थ से केवलज्ञान का कोई भेद नहीं है। क्योंकि सभी केवलज्ञान वाले आत्मा समान रूप से द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव तथा उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य-रूप सभी पदार्थों को ग्रहण करते है। भवस्थ केवली, सिद्ध केवली -इसके दो भेद सयोगी केवली अयोगी केवली ये सभी उपचार से भेद है।७९ पंचज्ञान की सिद्धि - वैसे ज्ञान में स्वभाव से कोई भेद नहीं है। लेकिन ज्ञप्ति, बोध, आवरणकर्म आदि को लेकर ज्ञान के भेद होते है जो युक्तियुक्त ही है। जैसे कि सूर्य के प्रकाश में स्वभाव से ही भेद नहीं है। वह जब शरद ऋतु में बादलों से सर्वथा मुक्त होता है तब समान रूप से सर्वत्र सभी वस्तुओं को प्रकाशित करता है। परंतु जब उस पर मेघ रूप आच्छादन आ जाता है तब उसका प्रकाश अवश्य रहता है / वह मन्द प्रकाश भी एक में एक सा प्रवेश नहीं करता है। वह भिन्न प्रकार का होता है। यदि द्वार खुला हो और द्वार से जो प्रकाश आता है वह भिन्न होता है, झरोखे से जो आता वह प्रकाश भी भिन्न है। जाली से जो प्रकाश आता है वह भी भिन्न होता है, पर्दे से जो प्रकाश आता वह भी भिन्न होता, क्योंकि द्वार, झरोखा, जाली और पर्दा, सूर्य के उस मन्द प्रकाश के इन आवरणों में और इन आवरणों में स्थित सूर्य प्रकाश के मार्गों में भिन्नता है। इस प्रकार प्रकाश के आवरणों में | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VI A तृतीय अध्याय | 217 ]
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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