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________________ आ. हरिभद्रसूरि ने 'नन्दीहारिभद्रीयवृत्ति' में अवधिज्ञान की व्याख्या इस प्रकार की है। अनुगामी - “अनुगमनशीलं, अनुगामिकं अवधिज्ञानं लोचनवद् गच्छन्तमनुगच्छतीतिभावार्थ।७० 'अनुगमन' अर्थात् पीछे-पीछे अनुसरण करने का स्वभाववाला, जिस जीव को जिस क्षेत्र में अवधिज्ञान होता है, वह जीव यदि क्षेत्रान्तर को चला जाय तो भी छूटता नहीं है, उत्पन्न होने के स्थान में और स्थानान्तर में दोनों जगह वह अपने योग्य विषयों को जान सकता है। जैसे कि सूर्य पूर्व दिशा में उदित होता हुआ सूर्य-प्रकाश पूर्व दिशा के पदार्थों को भी प्रकाशित करता है और अन्य दिशा के पदार्थों को भी प्रकाशित है। उसे अनुगामी अवधिज्ञान कहते है। अननुगामी - इससे विपरीत है। जिस स्थान पर अवधिज्ञान उत्पन्न होता है उस स्थान पर ही वह देख सकता है। उस स्थान को छोड़ देने के बाद अपने विषय को जानने में समर्थ नहीं हो सकता, उसे अननुगामिक अवधिज्ञान कहते है। जैसे कि - संकलाप्रतिबद्धदीपकवत् - सांकल से बांधा हुआ दीपक उसी स्थान पर प्रकाश कर सकता है, अन्यत्र नहीं। वर्धमान अवधिज्ञान - जो अवधिज्ञान अंगुल के असंख्यातवे भाग आदि जितने विषय का प्रमाण लेकर उत्पन्न हुआ था, उस प्रमाण से बढ़ता ही चला जाय उसको वर्धमान कहते है। जैसे कि - नीचे और उपर अरणि के संघर्षण से उत्पन्न अग्नि की ज्वाला शुष्क पत्र, ईन्धन आदि को पाकर बढ़ती ही रहती है, उसी प्रकार यह अवधिज्ञान जितने प्रमाण को लेकर उत्पन्न हुआ है, उससे अंतरङ्ग बाह्य निमित्त पाकर सम्पूर्ण लोक पर्यन्त बढ़ता ही जाता है। हीयमान अवधिज्ञान - असंख्यात द्वीप समुद्र, पृथ्वी, विमान और तिरछा अथवा उपर नीचे के जितने क्षेत्र का प्रमाण लेकर उत्पन्न हुआ है, क्रम से उस प्रमाण से घटते-घटते जो अवधिज्ञान अङ्गुल के असंख्यातवे भाग प्रमाण विषयवाला रह जाये उसे हीयमान कहते है। जिस प्रकार अग्नि की ज्वालाएँ पहले तो जोरों से उठती और बाद में उसका उपादान कारण न मिलने पर धीरे-धीरे कम हो जाती है। प्रतिपाति अवधिज्ञान - यह अवधिज्ञान एकरूप में न रहकर अनेक रूपों को धारण करता है या तो कभी उत्पन्न प्रमाण से घटता ही जाय, या कभी बढ़ता ही जाय अथवा कभी घटे भी और बढ़े भी या कभी छूट भी जाय और उत्पन्न भी हो जाय। जिस प्रकार किसी जलाशय की लहरें वायुवेग का निमित्त पाकर अनेक प्रकार की छोटी-मोटी या नष्टोत्पन्न हुआ करती है। उसी प्रकार इस अवधि के विषय में समझना चाहिए। शुभ या अशुभ या उभयरूप जैसे भी परिणामों का इसको निमित्त मिलता है उसके अनुसार उसकी हानि वृद्धि आदि अनेक अवस्थाएँ हुआ करती है। अप्रतिपाति अवधिज्ञान - यह अवधिज्ञान जितने प्रमाण क्षेत्र के विषय में उत्पन्न हो, उससे वह तब तक नहीं छूटता जब तक केवलज्ञान की प्राप्ति न हो जाय अथवा उसका वर्तमान मनुष्य जन्म छूटकर जब तक उसको भवान्तर की प्राप्ति न हो जाय। अवधिज्ञान के इसी प्रकार छ: भेद श्री तत्त्वार्थ सूत्र, कर्म ग्रन्थ,७२ नन्दीसूत्रवृत्ति,७२ तर्कभाषा आदि में भी बताये है। | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIII VIVA तृतीय अध्याय | 216]
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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