________________ अंगमिकश्रुत - गाथा, श्लोकादि असदृश पाठ जिसमें हो, वह अगमिकश्रुत, प्रायः कालिकश्रुत में होते अंगप्रविष्ट - गौतमस्वामी आदि गणधरों के द्वारा रचित द्वादशाङ्गी रूप श्रुत अंगप्रविष्ट है। अंगबाह्य - भद्रबाहुस्वामी आदि वृद्ध आचार्यों के द्वारा रचित आवश्यकनियुक्ति आदि श्रुत अंगबाह्यश्रुत ___ अथवा तीन बार गणधर भगवंतो द्वारा पूछे गये प्रश्नों का तीर्थंकर द्वारा कथित उत्पाद-व्यय-ध्रुवरूप त्रिपदी से बनी हुई द्वादशाङ्गी अंग प्रविष्ट श्रुत है और बिना पूछे अर्थ के प्रतिपादन से रचे गये ‘आवश्यकादि श्रुत' अंगबाह्य है।६४ चौदह भेद विशेषावश्यक भाष्य एवं तर्क भाषा में मिलते है। श्रुतज्ञान के चौदह भेद के सिवाय बीस भेद भी कर्मग्रन्थ,६७ 'गोम्मटसार' आदि ग्रन्थों में उल्लिखित है। पज्जायक्खरपद संघादं पडिवत्तियाणिजोगं च। दुगवारपाहुडं च य पाहुड यं वत्थु पुव्वं च। तेसिं च समासेहिं य वीस विहं वा हु होदि सुदणाणं / आवरणस्स.वि भेदा तत्तियमेत्ता हवंति त्ति // 68 (1) पर्यायश्रुत (2) पर्यायसमासश्रुत (3) अक्षरश्रुत (4) अक्षरसमासश्रुत (5) संघातश्रुत (6) संघातसमासश्रुत (7) प्रतिपत्तिश्रुत (8) प्रतिपत्तिसमासश्रुत (9) अनुयोगश्रुत (10) अनुयोगसमासश्रुत (11) प्राभृतप्राभृतश्रुत (12) प्राभृतप्राभृतसमासश्रुत (13) प्राभृतश्रुत (14) प्राभृतसमासश्रुत (15) पदश्रुत (16) पदसमासश्रुत (17) वस्तुश्रुत (18) वस्तुसमासश्रुत (19) पूर्वश्रुत (20) पूर्वसमासश्रुत। अवधिज्ञान - यह प्रत्यक्षज्ञान है। इसके दो प्रकार स्थानांग सूत्र' की टीका में समुल्लिखित हैअवधिज्ञानं द्विविधं प्रज्ञप्तं / तद् यथा भवप्रत्ययिकं चैव क्षायोपशमिकं चैव।६९ अवधिज्ञान दो प्रकार है - भवप्रत्यय एवं क्षायोपशमनिमित्तक / नारकों और देवताओं को जो अवधिज्ञान होता है, वह भव प्रत्यय कहा जाता है। नारक और देवों के अवधिज्ञान में उस भव में उत्पन्न होना ही कारण माना है जैसे कि - पक्षियों के आकाश में गमन करना स्वभाव से उस भव में जन्म लेने से ही आ जाता है। उसके लिए शिक्षा एवं तप कारण नहीं है। उसी प्रकार जो जीव नरक एवं देवगति में उत्पन्न होते है उनको अवधिज्ञान स्वतः ही प्राप्त होता है। लेकिन इतना जरुर है कि सभी देवताओं के देखने का मर्यादा क्षेत्र समान नहीं होता। .. क्षायोपशमिक अवधिज्ञान छः प्रकार का होता है। यह भेद अवधिज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम की अपेक्षा से है। इसके स्वामी मनुष्य और तिर्यंच है। अर्थात् अवधिज्ञान मनुष्यों और तिर्यंचो को यथायोग्य क्षायोपशम होने पर होता है। छः भेद इस प्रकार है - अनुगामी, अननुगामी, वर्धमान, हीयमान, प्रतिपाति, अप्रतिपाति। [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VI तृतीय अध्याय | 215