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________________ ग्रह, तारा, चन्द्र आदि का अपना प्रकाशरूप फल होने पर भी सूर्य का उदय होने पर उसका अपना प्रकाश निष्फल हो जाता है उसी प्रकार मतिज्ञान आदि सफल होने पर भी केवलज्ञान की उपस्थिति में वे निष्फल हो जाते है। क्योंकि जिस प्रकार रात्रिरूप सहकारी कारण के अभाव में नक्षत्र आदि अपने कार्य में निष्फल होते है उसी प्रकार छद्मस्थ भावरूप सहकारी कारण का अभाव होने से मतिज्ञानादि का केवलज्ञान के समय अपने कार्य में निष्फल होते है। मति ज्ञानादि का स्वभाव ही ऐसा होता है कि जब तक केवलज्ञान प्रगट नहीं होता है वहाँ तक अपने कार्य में सफल होते है और केवलज्ञान प्रगट होने के बाद निष्फल हो जाते है। लेकिन उनका अपना अस्तित्व अपने स्थान पर पूर्णरूप से अवस्थित रहता है। इसी कारण आगमों में पाँच ज्ञान का स्वरूप मिलता है। इन सभी कारणों से ज्ञान की पंचविधता स्पष्ट सिद्ध हो जाती है। धर्मसंग्रहणी 1 टीका में विशेष स्पष्ट किया है। मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्यवज्ञान - इन चारों ज्ञानों की सिद्धि अन्तिम केवलज्ञान में समाहित रही हुई है। प्रत्येक ज्ञान अपने अस्तित्व से अवस्थित एवं मर्यादित है। मतिज्ञान, श्रुतज्ञान - इन दोनों का अत्यधिक उपयोग मनुष्य जीवन में उपलब्ध होता है। मति और श्रुतज्ञान से प्रायः संसार चल रहा है। कोई ऐसा उच्चकोटि का विरल जीव मति-श्रुत से आगे बढ़ता हुआ अवधिज्ञान का अधिकारी बनता है और उससे आगे बढ़कर मनःपर्यव का अधिकारी होता है और कोई उससे भी आगे बढ़कर केवलज्ञान की सीमा को छूता इन ज्ञानों का संस्मरण नन्दिसूत्र की टीका में आचार्य श्री हरिभद्रसूरि ने विस्तृत रूप से किया है। यह तो निश्चित है कि ये पाँचों ज्ञान केवल जैन दर्शन के वाङ्मय में ही इस प्रकार की श्रेणी से उपलब्ध है। अन्य दर्शनकारों ने ज्ञान की सिद्धि स्वीकार की है परन्तु जैसी इन पाँच ज्ञानों की विचारणा जैन साहित्य में मिलती है वैसी अन्यत्र सुलभ नहीं है। ये पाँचों ज्ञान जैन परम्परा में प्राचीन है। इनकी प्राचीनता यत्र-तत्र-सर्वत्र पूर्णतया प्रशंसनीय है, प्रमाणित है और प्रत्येक काल में उपयोगी है / ज्ञान की सिद्धि के बिना हमारा जीवन शून्य है / ज्ञानमय जीवन हमारा अभ्युदय करता है। जहाँ सिद्धि है वहाँ प्रसिद्धि है, पाँचों ज्ञान सिद्ध भी और प्रसिद्ध भी है। अतः सर्व मान्य है। ___लक्षणादि सात भेद से मतिश्रुत का भेद - यद्यपि जहाँ मति होता है वहाँ श्रुत अवश्य होता है तथा इन दोनों की कुछ कारणों को लेकर समानता होते हुए लक्षणादि सात कारणों से दोनों में वैधर्म्य भी है। अर्थात् भेद भी है। उसी के कारण आगमों में शास्त्रों में मतिज्ञान और श्रुतज्ञान का स्वतन्त्र अस्तित्व हमें मिलता है। आचार्य श्री हरिभद्रसूरि रचित 'धर्मसंग्रहणी' में इस विषय को प्रस्तुत करती हुई गाथा इस प्रकार है“मतिसुयनाणाणं पुण लक्खणभेदादिणा भेओ।"८२ / मति और श्रुत ज्ञान का लक्षणादि कारणों से भेद है। इस विषय को 'धर्मसंग्रहणी' के टीकाकार आचार्य श्री मल्लिसेन ने विशेष रूप से स्पष्ट किया है। | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIII I तृतीय अध्याय | 219 )
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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