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________________ सौम्यता को प्रकाशित करती है उसी प्रकार ज्ञानावरण के क्षय होने से क्षय के अनुरूप अत्यंत ज्ञान का प्रकाश प्रसरित होता है। इस प्रकार जहाँ आत्मा है, वहाँ ज्ञान अल्पांश या सर्वांश मात्रा में अवश्य है और जहाँ ज्ञान, चेतन, वृद्धि, हानि प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होती है वहाँ आत्मा और चेतन शक्ति के मध्य व्यर्थ में जो समवाय लाते है, उससे क्या फायदा? ज्ञान तो सूक्ष्म निगोद के जीवों को भी होता है, और सिद्धशिला में विराजमान सिद्धों को भी, लेकिन इतना अवश्य है कि किसी में वह सम्यक्त्व विशेषण से विशिष्ट होता है और किसी में मिथ्यात्व से युक्त होता है। जिसके द्वारा यथावस्थित पदार्थों का बोध होता है उसे ज्ञान कहते है। तात्पर्य हेय, ज्ञेय, उपादेय जैसा पदार्थ का स्वरूप है वैसा ही बोध होता है, यह आचारांग सूत्र का अभिधेय वचन है।' "ज्ञानावरणक्षयक्षयोपशमसमुत्थः तत्त्वावबोधो ज्ञान।"६ आचार्य श्री हरिभद्र ने तत्त्वार्थ की 'हारिभद्रीय टीका' में ज्ञान की व्युत्पत्ति इस प्रकार बतायी है कि ज्ञानावरण के क्षय, क्षयोपशम से उत्पन्न होनेवाला तत्त्व का जो बोध उसे ज्ञान कहते है। इसके द्वारा उन्होंने मिथ्यात्व युक्त कितना ही ज्ञान हो लेकिन वह ज्ञान की कक्षा में नहीं आ सकता है, यह स्पष्ट रूप से सिद्ध कर दिया। आ. श्री हरिभद्र सूरि ने ज्ञान की इस व्याख्या में अपने ही अनुभव की झलक दिखा दी है क्योंकि उन्होंने अपने जीवन में लौकिक ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात् जब लोकोत्तर ज्ञान की प्राप्ति की, तब दोनों ज्ञानों के तारतम्य में लोकोत्तर ज्ञान की पराकाष्ठा चरम सीमा में देखी और उसे ही तत्त्वज्ञान की श्रेणि में स्थान दिया और उस तत्त्वज्ञान को ज्ञान रूप में स्वीकारा, अन्य को अज्ञान में। "ज्ञायते प्रधान्येन विशेष गृह्यतेऽनेनेति ज्ञानम्।७ आचार्य श्री गुणरत्नसूरिकृत ‘षड्दर्शन समुच्चय टीका' में ज्ञान की व्युत्पत्ति का स्वरूप कुछ ऐसा मिलता है कि प्रधान रूप से गृहीत होता है विशेष अंश जिससे वह ज्ञान कहलाता है। इस ज्ञान' विशेषण से ज्ञान से भिन्न अर्थात् अज्ञानरूप सामान्यमात्र का आलोचन करनेवाले तथा प्रवृत्ति आदि व्यवहार के अनुपयोगी जैन आगम में प्रसिद्ध दर्शन और नैयायिक द्वारा माने गये अचेतनात्मक सन्निकर्ष आदि में भी प्रमाणता का व्यवच्छेद हो जाता है क्योंकि दर्शन चेतन होकर भी ज्ञानरूप नहीं है तथा सन्निकर्ष तो अचेतन होने से स्पष्ट ही अज्ञान रूप अन्तिम में आचार्य श्री हरिभद्रसूरि ने 'आवश्यक शिष्य हिता टीका' में ज्ञान की व्याख्या में एक महत्त्वपूर्ण कथन समुल्लिखित किया है, वह इस प्रकार है - ज्ञायतेऽनेन यथावस्थितं वस्त्विति ज्ञानं, तज्ज्ञानं भावोद्योतः। ___ जिसके द्वारा यथावस्थित वस्तु का बोध होता है वह ज्ञान तो है ही लेकिन वह ज्ञान भाव उद्योत स्वरूप बन जाता है। अर्थात् वह ज्ञान केवलज्ञान के स्वरूप को धारण कर लेता है। इस व्याख्या में इन्होंने यथावस्थित ज्ञान को केवलज्ञान की कोटि में पहुंचा दिया। आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VII I तृतीय अध्याय | 203)
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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