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________________ आचार्य श्री हरिभद्र की ज्ञान विषयक भिन्न-भिन्न व्युत्पत्ति उनकी अपनी निराली देन है। उनकी प्रत्येक व्याख्या में अलग-अलग भाव भरे हुए है जो ज्ञान की प्रकृष्टता को ही प्रकट करते है। उन्होंने ज्ञान की उत्कृष्टता को जीवन में उतारा और अज्ञानी जीवों के बोध के लिए ग्रन्थों में ग्रंथित किया। आचार्य श्री हरिभद्रसूरि ज्ञान की गरिमा से गौरवान्वित होकर तीर्थंकरों द्वारा प्ररूपित, पूर्वाचार्यों द्वारा रचित नन्दिसूत्र' प्रज्ञापना, अनुयोगद्वार जैसे ग्रन्थों पर टीका लिखकर ज्ञान की महत्ता प्रदर्शित की। एवं “आवश्यक शिष्यहिता टीका' जैसे विशालकाय ग्रंथ में तथा 'ज्ञान पञ्चक व्याख्यान' में ज्ञान की व्युत्पत्ति एवं स्वरूप का विस्तार से वर्णन किया है। आचार्य श्री हरिभद्र सूरि की ज्ञान की व्युत्पत्ति को उत्तरवर्ती आचार्यों ने भी स्वीकारी है तथा जो आज तक सुग्राह्य बनी है। ___ ज्ञान के भेद - जैन आगमों तथा पूर्वाचार्य रचित ग्रन्थों में ज्ञान के पाँच भेद उपलब्ध होते है। जिसका सकल काल में स्थित सम्पूर्ण वस्तुओं के समूह को साक्षात् करनेवाले केवलज्ञान की प्रज्ञा से तीर्थंकरों ने पाँच ज्ञान का उपदेश दिया है तथा गणधर भगवंतों ने उन पाँच ज्ञानों को सूत्र में निबद्ध (ग्रंथित) किये है। आचार्य श्री. हरिभद्र सूरि रचित नन्दीसूत्र हारिभद्रीय टीका' में इस प्रकार पाठ मिलता है। अत्थं भासइ अरहा सुत्तं गति गणहरा णिउणं। सासणस्स हियट्ठाए तओ सुत्तं पवत्तइ॥ अर्थ से तीर्थंकर भगवान उपदेश देते है और गणधर भगवंत सुंदर सूत्र रूप में रचना जीवों के हित के लिए करते है उसी से सूत्र प्रवृत्त होता है। अर्थात् यहाँ आचार्य श्री हरिभद्रसूरि कहते है कि यहाँ जो पाँच ज्ञानों का : निरूपण किया जा रहा है वह अपनी मति कल्पना से नहीं परन्तु पूर्वाचार्यों के कथित मार्ग का अनुसरण है। आगम ग्रन्थों आदि में ज्ञान के पाँच भेद उल्लिखित है। णाणं पंचविहं पणत्तं - तंजहा - आभिनिबोहियाणं, सुयणाणं, ओहिणाणं, मणपज्जवणाणं केवलणाणं / मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान - ये पाँच प्रकार ज्ञान के है। इसी प्रकार के भेद अभिधान राजेन्द्र कोष, उत्तराध्ययन सूत्र 2, नन्दीसूत्र 3, विशेषावश्यकभाष्य, तत्त्वार्थ सूत्र५, धर्मसंग्रहणी और कर्म ग्रंथ आदि सूत्रों में भी निर्दिष्ट है। आगम ग्रन्थ आदि में ज्ञान के पाँच भेद देखने को मिलते है लेकिन उसके कारण नहीं मिलते, कि पाँच ही भेद क्यों ? आचार्य श्री हरिभद्रसूरि ने अपने रचित धर्मसंग्रहणी में पाँच ज्ञान के निरूपण के साथ उसके कारण भी विशेष रूप से बताये है - पंचविहावरणखओवसमादि निबंधणं इह नाणं। पंचविहं चिय भणियं, धीरेहिं अणंतनाणीहिं॥१८ धीर - वीर अनंतज्ञानी तीर्थंकर भगवंतो ने कहा है कि मतिज्ञानावरणादि पाँच प्रकार के आवरण है। अतः उसके क्षयोपशमादि से उत्पन्न होनेवाला ज्ञान भी पाँच प्रकार का ही है क्योंकि उसमें कारणभूत आवरण [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VI TA तृतीय अध्याय | 204
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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