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________________ 1444 ग्रंथ आज भी उनकी ज्ञान गरिमा को गौरवान्वित करने में अपनी सफलता प्रदर्शित कर रहे है। आज भी ये ग्रंथ हमें प्रेरणा दे रहे है कि आचार्य श्री हरिभद्रसूरि का जीवन ज्ञान की सरिता में कितना आकंठ निमग्न होगा। ज्ञान को जीवन में कितना स्थान दिया होगा। जो हमारे जीवन में अत्यावश्यक है, ज्ञान के बिना जीवन शून्य है। ‘ज्ञानाद् ऋते न मुक्तिः।' ज्ञान के बिना मुक्ति नहीं है। ज्ञान की व्युत्पत्ति - आगम शास्त्रों में ज्ञान की व्युत्पत्ति हमें इस प्रकार मिलती है। ज्ञातिर्ज्ञानमिति भाव साधन संविदित्यर्थ। ज्ञायते वाऽनेनास्माद्वेत्ति ज्ञानं, तदावरणक्षयक्षयोपशमपरिणाम युक्तो जानाति इति वा ज्ञानम्। जानना वह ज्ञान है। यहाँ भाव में अनट् प्रत्यय है। अथवा ज्ञानावरणीय कर्म के क्षय अथवा क्षयोपशम से जो बोध होता है वह ज्ञान कहलाता है। अथवा ज्ञानावरणीय कर्म के क्षय अथवा क्षयोपशम रूप परिणाम युक्त जो बोध होता है वह ज्ञान है। ___ यही व्याख्या आचार्य श्री हरिभद्रसूरि रचित 'नन्दीसूत्र वृत्ति'३ में भी मिलती है। उन्होंने लिखा है कि ज्ञान शब्द की व्युत्पत्ति भावसाधन करणसाधन और कर्तृसाधन से भी शक्य है। “ज्ञातिर्ज्ञानम्" इसमें भाव में 'अनट्' होने से भाव साधन से ज्ञान की व्याख्या है, अर्थात् जानना यह ज्ञान है, लेकिन क्या जानना, कितना जानना, कैसा जानना, किसके पाससे जाना ? इन सभी का प्रत्युत्तर केवलज्ञानी प्ररूपित धर्मशास्त्र के बिना एक भी शास्त्र समर्थ नहीं है। ___ "ज्ञायते अनेनास्माद्वेत्ति ज्ञान" - अर्थात् करण (साधन) के द्वारा जो ज्ञान होता है वह करण ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय अथवा क्षयोपशम ही है क्योंकि वह कर्म अनादिकाल से आत्मा के प्रत्येक प्रदेश रुप में स्थित है जब साधक मुनियों, योगियों का समागम करता है तब आवरणीय कर्म का सर्वथा क्षय अथवा क्षयोपशम होता है तब उसे यथार्थज्ञान का सर्वांश या अल्पांश प्राप्त होता है। __ “ज्ञायतेऽस्मिन्निति ज्ञानम्' - यह व्याख्या भी सुसंगत इसीलिए है कि आत्मा स्वयं ही ज्ञानवंत है क्योंकि यह हम साक्षात् देखते है कि सूर्य रहित किरणें या किरण रहित सूर्य कभी नहीं होता है ऐसा न कभी अतीत में हुआ है और न भविष्य में होगा, इस सत्य अनुभव में यदि कोई तार्किक शिरोमणि भी अपने तर्क जालों से खण्डन करने जाय तो आबाल गोपाल भी उस पंडित की हँसी-मजाक किये बिना नहीं रहेगा। हाँ ! इतना निश्चित है कि आवरण के आच्छादन के कारण ज्ञान का प्रकाश पुञ्ज जितना प्रकाशित होना चाहिए उतना नहीं हो पाता है लेकिन जैसे-जैसे आवरण का आच्छादन पुरुषार्थ के द्वारा दूर होता है वैसे-वैसे सम्पूर्ण ज्ञान प्रकाशित होता है। आचार्य श्री हरिभद्रसूरिने इसी बात को एक सुंदर दृष्टांत देकर “धर्मसंग्रहणी' में समझाई है - पवणदरवियलिएहिं घणघणजालेहिं चंदिम व्व तओ। चंदस्स पसरइ भिसं जीवस्स तहाविहं नाणं॥ जिस प्रकार तीव्र पवन के संपर्क से चलित अति गाढ बादलों के समूह में से चन्द्रमा की चाँदनी अपनी आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIA तृतीय अध्याय | 202 )
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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