________________ / तृतीय अध्याय ज्ञान मीमांसा आचार्य श्री हरिभद्रसूरि की ज्ञान मीमांसा एक दार्शनिकता को उद्घाटित करती हुई साहित्य जगत में उजागर हुई है। उनके द्वारा रचित अनेक ग्रन्थों में ज्ञान-विषयक विवरण हमें प्राप्त होता है। क्योंकि उन्होंने स्वयं अपने जीवन में ज्ञान को जाना था। उसकी गरिमा का आस्वाद लिया था। ज्ञानदृष्टि उद्घाटित हो जाने के बाद एक दिव्य शक्ति का प्रादुर्भाव होता है तथा चिंतन की दृष्टि बन जाने के बाद क्रमशः दिशाएँ दिगंत अनंतरूप लेती है और जीवन का उत्थान उत्क्रान्ति का रूप लेता है। अतएव ज्ञान ज्योति है, मार्गदर्शक है, स्वतत्त्व को ज्ञात कराता है। तत्त्व विभाकर बनकर ज्ञान निर्णायक शक्ति का प्रकटीकरण करता है। आचार्य श्री हरिभद्र ने दार्शनिक साहित्य में ज्ञान का एक जीवन्त स्वरूप खड़ा किया है जिसे सैंकडों आत्माओं ने नतमस्तक होकर स्वीकारा है। उनकी उदारता एवं समदर्शिता ने उनके साहित्य को विद्वद्वर्य के लिए हृदयगम्य बना दिया है। - ज्ञान की कक्षा जितनी विस्तृत होगी उतनी श्रद्धा गहरी बनेगी। ज्ञान से मिथ्यात्व का परिहार और सम्यक्त्व का दर्शन होता है। सम्यग् श्रद्धा की अभिव्यक्ति में ज्ञान का बड़ा ही महत्त्व है। ___ श्री हरिभद्रसूरि विद्वान् तो थे ही साथ में वे ज्ञानी भी थे। विद्वान् तो कभी तर्कों के जाल में फँस जाता है लेकिन ज्ञानी ज्ञानमार्ग पर आरुढ होकर योगसिद्धि को प्राप्त करता है क्योंकि उसको यह ज्ञान है कि तत्त्वज्ञान ही योगसिद्धि, इष्टसिद्धि का मुख्य सोपान है। इस रहस्य को उन्होंने “योगशतक' की कृति में दिखाया है। एयं खु तत्तणाणं असप्पवित्तिविणिवित्तिसंजणग। थिरचित्तगारि लोगदुगसाहगं बेंति समयण्णु॥ श्रुतज्ञान, चिन्ताज्ञान और भावनामयज्ञान - यह तीनों प्रकार का तत्त्वज्ञान आत्मा को असत् प्रवृत्तियों से निवृत्ति दिलाता है, चित्त को स्थिर बनाता है तथा दोनों लोक का साधक बनता है - ऐसा समयज्ञ पुरुष कहते है। ___ आचार्य श्री हरिभद्रसूरि के जीवन की यह महानता थी कि वे जो कुछ लिखते थे वहाँ स्वयं को अज्ञ देखाकर पूर्वाचार्यों को विद्वज्ञ बताते थे और यह नम्रता का गुण ज्ञान के बल पर ही आ सकता है। जिस प्रकार फलों से लदा (युक्त) वृक्ष नम जाता है - झुक जाता है, वैसे ही हरिभद्रसूरि ज्ञानगुणों से नम्रतर नम्रतम बनते गये और इस ज्ञान की नम्रता ने ही उनको ज्ञान के उच्चस्थान पर आरुढ कर दिया था। [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व V अध्याय | 201