________________ रूप देकर द्रव्यानुयोग के कलेवर को कोविद प्रिय बना दिया। द्रव्यवाद आत्मवाद का ही रूपान्तर है इसमें षड्द्रव्य की विचारणा है। द्रव्यवाद हमारे आगमों का सारभूत विषय है। पुरातन काल से द्रव्यवाद आर्हतों का मूलधन रहा है / इसकी संवृद्धि करने में समय-समय सभी जैनाचार्यों ने अपने आत्म -विज्ञान का विशेष सार गर्भित किया है। जैन दर्शन कदाग्रह और हठाग्रह से हमेशा मुक्त रहा है। उसका मौलिक लक्ष्य सदा सापेक्षवाद से सक्षम एवं सारभूत सत्यवान संदर्शित हुआ है। प्रत्येक पदार्थो के ऊपर अनेकान्त दृष्टि से निरीक्षण करते हुए उसके उभय पक्ष को न्याय मार्ग से संतुलित रखते हुए सर्वश्रेष्ठ सापेक्षवाद से संसिद्धि करने का सुप्रयास अनेकान्तवादियों ने अनवरत अक्षत रखा। इसी तरह आचार्य हरिभद्र जैसे मूर्धन्य महामेधावी अनेकान्तवादी मञ्च के महान् कलाकार बनकर अपनी आत्म कृतियों में अजरामर हो गये। यह अनेकान्त वाद आज भी जैन दर्शन का आदर्श सिद्धान्त रूप से चरितार्थ होकर के अपनी यशोकीर्ति सर्वत्र सम्प्रसारित कर रहा है। ईश्वरीय अनुसंधान में और अन्वेषण में अनादि काल से इस भारत की धरापर भव्यात्माओं का भगीरथ प्रज्ञा पुरुषार्थ रहा है। तीर्थनायक सर्वज्ञ की सिद्धि के लिए आचार्य हरिभद्र ने ग्रन्थ का निरूपण किया। सर्वज्ञता की अर्चा का और चर्चा का सुविषय प्रतिष्ठित कर अपने मति वैभव का विधिवत् उल्लेख कर विद्वत् समाज को सर्वज्ञवाद से आकर्षित करवाया / ऐसे महापुरुष सदा-सदा के लिए वन्दनीय, अभिनन्दनीय बन गये है। . आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VI IIIIIA द्वितीय अध्याय 187 )