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________________ है तथा उसे पाकर आनंद से पुलकित हो उठता है तथा इन ग्रन्थों को पाकर अपने को धन्य समझता है ! __ आचार्य श्री हरिभद्र ने इन तीनों का विशद विश्लेषण किया ही है / लेकिन साथ में नयवाद से भी अछूते नहीं रहे / इन्होंने नयवाद को अपने ग्रन्थों में स्थान दिया है क्योंकि नयवाद जैनदर्शन की नींव है जिस पर अनेकान्त का भव्य राजमहल अटल अवस्थित रहा है / नयवाद और अनेकान्त एक दूसरे से परस्पर भिन्न नहीं है। लेकिन एक दूसरे के समाश्रित ही है। जैन दर्शन में एक भी सूत्र-अर्थ ऐसा नहीं है जो नयवाद से शून्य है। लेकिन यह नयवाद भी अत्यंत गहन और गम्भीर है। सरलता से उसे नहीं जाना जा सकता है। अन्यदर्शनकारों ने जहाँ एक-एक नयवाद का आश्रय लेकर वस्तु के वास्तविक स्वरूप से दूर रहे और वस्तु के साथ घोर अन्याय किया वहाँ जैनदर्शन के जैनाचार्यों ने सातों ही नय को समादर दिया और वस्तु के वास्तविक स्वरूप को दर्शन जगत के सामने उपस्थित किया। ___ मैं जहाँ तक मानती हूँ वहाँ तक यदि प्रत्येक व्यक्ति इन सप्तनय सप्तभंगी को स्वीकार कर ले तो अनेक प्रकार के विसंवाद, वितण्डावाद, विखवाद दूर हो सकते है और समस्त भाव की सिद्धि प्राप्त हो सकती है / अत: प्राज्ञ पुरुष को स्याद्वाद चिन्तामणि के लाभ की चाह है उसे सदैव गुरु उपदेश के अनुसार स्याद्वाद तत्त्व को समझने के लिए प्रवृत्त होना चाहिए। स्याद्वाद चिन्तामणिलब्धिलुब्धः प्राज्ञः प्रवर्तेत यथोपदेशम्॥४५० स्याद्वाद चिन्तामणि के प्राप्ति के इच्छुक बुद्धिमान व्यक्ति को सदैव गुरु उपदेश से उस तत्त्व को समझना चाहिए। जिससे उसकी प्रज्ञा प्रकर्ष बनकर ज्ञेयाज्ञेय को सम्पूर्ण रीति से जान सके। निष्कर्ष प्रस्तुत अध्याय में सर्व प्रथम सत् की अवधारणा को उत्तरोत्तर उच्चतर बनाने के लिए ऐसे उद्धरणों को उल्लिखित करते हुए सत् को साकार रूप देने का संकल्प सत्यवान् बनाया है। तत्त्वरुचि सम्पन्न आचार्य हरिभद्र के वाङ्य में तात्त्विकताओं को तात्पर्याय अर्थो से उजागर करने का उत्तरदायित्व उच्चता से निभाया है। यह ललित लेखन आचार्य की कृतियों में यत्र तत्र तत्त्व सुरभियों को प्रसारित करता हुआ प्राप्त होता है। उपलब्ध तत्त्व राशियों की अवधारणाएँ अद्यावधि अस्खलित मिल रही है। तत्त्व रुचि रसिक होते हुए आचार्य श्री लोक प्रवाद का सम्मान सुरक्षित रखते हुए लोकवाद विषयक विचारणाएं विविधता से व्यक्त करते हुए जैनदर्शन के सारभूत सत्यों को कथित करने में कर्मठ कोविद रहे है। लोक विषयक मान्यताएँ भिन्न-भिन्न मिल रही है / आचार्य हरिभद्र इन सभी मान्यताओं को मथित करते अर्हत् मान्यता का परिष्कार करते हुए एक पारदर्शी प्राज्ञ पुरुष रूप से अपनी कृतियों में कृतज्ञ बने हैं। जैन दर्शन का मौलिक मुख्य और मूर्धन्य विषय है - द्रव्यवाद / इस द्रव्यवाद को दूरदर्शिता से दार्शनिक आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व V अद्वितीय अध्याय | 186]
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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