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________________ मत्पिण्डादिकालत्वेन तथा भावतः श्यामत्वेन न रक्तत्वादिनेति।'४३१ ____ कारण कि प्रत्येक वस्तु स्वद्रव्य क्षेत्र काल भाव की अपेक्षा से सत् होती है और परद्रव्य क्षेत्र काल भाव की अपेक्षा से असत् होती है अपेक्षा भेद से सत् और असत् धर्म घटित होता है अन्यथा वस्तु के अभाव का प्रसंग आ जायेगा। जैसे कि द्रव्य से घड़ा पृथिवी का बना हुआ है। जल, हवा आदि का नहीं / अत: पार्थित्व से घड़ा सत् जलत्व धर्म से वह असत् है। क्षेत्र की अपेक्षा से घड़ा यहाँ स्थित / अत: यहां अमुक आकाश प्रदेश की अपेक्षा से सत् है। लेकिन परपर्याय से तो लोक में असंख्य प्रदेश होंगे / उसकी अपेक्षा से असत् है। अर्थात् वहाँ घड़ा का अस्तित्व नहीं है। अथवा अमुक देश का घड़ा है। लेकिन पाटलीपुत्र का घड़ा नहीं है। काल से घटकालत्व से सत् है / लेकिन मृत्पिंडक पालादि रुप से असत् है। भाव से घट श्यामरूपत्व से सत्, लेकिन रक्तत्व रुप से असत् है। इस प्रकार एक ही वस्तु सत्-असत् आदि विरुद्ध धर्मों से युक्त हो सकती है। उसी प्रकार वस्तु सामान्य और विशेष रूप भी है तथा अभिलाप्य और अनभिलाप्य भी है। यही बात अनेकान्तप्रवेश 32 षड्दर्शनसमुच्चय४३३ की टीका आदि में उल्लिखिल है। आचार्य हेमचन्द्रसूरि अनेकान्त सिद्धान्त को एक व्यवहारिक दृष्टांत देकर समझाते है जो आबालगोपाल प्रसिद्ध है एवं मान्य है। गुड़ कफ का कारण होता है और सूंठ पित्त का कारण बनता है / लेकिन इन दोनों का संमिश्रण रूप औषध में एक भी दोष संभवित नहीं है। उसी प्रकार नित्यानित्य आदि धर्म भी नयविवेक्षा से ग्रहण करने में कोई आपत्ति नहीं आती है क्योंकि नित्य द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से कहा जाता और अनित्य पर्यायार्थिक नय की विविक्षा से कथित किया जाता है / अत: एक ही वस्तु में दोनों धर्म रह सकते हैं।४३४ अनेकांत के समर्थन में दूसरा मेचक का दृष्टांत देते है / चित्र-विचित्र अर्थात् पंचवर्णात्मक रत्न में, कपड़े में, विरुद्ध परस्पर विरोधी वर्णो का संयोग देखा जाता है। उसी प्रकार नरसिंह में भी। इस प्रकार यदि दुराग्रह निकाल कर प्रामाणिकता से दृष्टि डाली जाय तो अवश्य उस वस्तु में सत् के साथ असत् विशेष के साथ सामान्य तथा भेदाभेद आदि धर्म मिल सकते है / लेकिन इतना निश्चित है कि वस्तु की सीमा और मर्यादा का उल्लंघन नहीं होना चाहिए। यदि जड़ में चेतनत्व और चेतन में जड़त्व खोजने जायेंगे तो कभी भी नहीं मिल सकते। क्योंकि प्रत्येक पदार्थ के अपने-अपने निजि धर्म निहित हैं, क्योंकि प्रत्येक वस्तु अनन्त धर्मात्मक है / लेकिन सर्वधर्मात्मक नहीं है / चेतन के गुण धर्म अचेतन में नहीं पाये जाते और अचेतन गुण-धर्म चेतन में मिलने असंभवित है। लेकिन कुछ ऐसे प्रमेय ज्ञेय आदि सामान्य धर्म है जो दोनों में पाये जाते है। अत: क्षुद्र दृष्टि से एक धर्म का आग्रह करके दूसरे का तिरस्कार करना अपना कदाग्रह ही है / इससे अधिक कुछ नहीं है / अत: आचार्य हरिभद्र सूरि दार्शनिक जगत में एक समदर्शिरूप में अवतरित होकर अपनी उदात्त भावना को इस प्रकार व्यक्त करते है - आग्रही बत निनीषती युक्तिं तत्र-यत्र मतिरस्य निविष्टा। आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VOINTINIIIIIIIIA द्वितीय अध्याय 180)
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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