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________________ परन्तु एकान्तवाद से अलग-अलग रहे हुए उन-उन दर्शनरूपी नदीओं में स्याद्वादरूपी महासागर दृष्टिगोचर नहीं होता है। इस सम्बन्ध में सन्त आनंदघनजी ने नमिनाथ भगवान के स्तवन में अपने उद्गारों को इस प्रकार प्रगट किये है - जिनवरमां सघलां दरिसण छे, दर्शन जिनवर भजना। सागरमां सघली तटिनी सही, तटिनी सागर भजना रे // 424 इस प्रकार अनेकान्त दृष्टि एक विशाल दृष्टिकोण है। अनेकान्तदृष्टि एक वस्तु में अनन्त धर्मों का दर्शन करती है। जैसा कि आचार्य हरिभद्र ने अपने षड्दर्शन समुच्चय में इसका उल्लेख इस प्रकार किया है - 'अनन्तधर्मकं वस्तु प्रमाणविषयस्त्विह।'४२५ अनंत धर्मवाली वस्तु प्रमाण का विषय होती है, प्रमाण के द्वारा अनन्तधर्मात्मक जाना जाता है। अनन्तधर्मवाली वस्तु प्रमेय है। अनेक धर्म या अंश ही जिसका आत्मा (स्वरूप) हो वह पदार्थ अनेकान्तात्मक कहा जाता है। चेतन या अचेतन सभी वस्तुएँ अनंत धर्मवाली होती है। इसी विषय संबंधी प्रमाण स्याद्वादमंजरी,४२६ अनेकान्तव्यवस्था प्रकरण,४२७ प्रमाणनय तत्त्वालोक,४२८ अनेकान्तजयपताका,४२९ षड्दर्शनसमुच्चय टीका 30 आदि में भी मिलते है। अथवा जिसमें अनन्त तीनों कालों में रहनेवाले, अपरिमित, सहभावी अथवा क्रमभावी धर्मस्वभाव पाये जाते है वह वस्तु अनन्तधर्मक या अनेकान्तात्मक कहलाती है। परम तारक सर्वज्ञ देव महावीर परमात्मा ने बताया कि जब तक उसके विरांट स्वरूप का साक्षात्कार नहीं होता है तब तक साधारण व्यक्ति अनंत धर्मों का साक्षात्कार नहीं कर सकता है। अतः वस्तु के एक-एक अंश को जानकर अपने में पूर्णता का दूरभिमान कर बैठा है। विवाद वस्तु में नहीं है लेकिन विवाद तो देखनेवालों की दृष्टि में है। उन्होंने बताया कि प्रत्येक वस्तु अनंत गुण पर्याय और धर्मों से अखण्ड पिण्ड है। यह अपनी अनादि-अनंत स्थिति की दृष्टि से नित्य है। कभी भी ऐसा समय नहीं आ सकता जब विश्व के रंगमञ्च से एक कण का भी समूल नष्ट हो जाय। साथ ही प्रतिक्षण पर्याय बदल रहा है, उसके गुण-धर्मों में सदृश या विसदृश परिवर्तन हो रहा है। अतः अनित्य है। इसी तरह अनन्त गुण, शक्ति पर्याय और धर्म प्रत्येक वस्तु की निजी सम्पत्ति है। ___ सभी प्रमाण या प्रमेय रूप वस्तु में स्व-पर द्रव्य की अपेक्षा क्रम और युगपत् रूप से अनेक धर्मो की सत्ता पायी जाती है वस्तु की अनेकान्तात्मकता तो सभी प्राणियों को सदा अनुभव में आती है। जैसे कि घड़ा अपने द्रव्य में है, अपनी जगह, अपने समय में है तथा अपने पर्याय से सत् है। लेकिन दूसरे द्रव्य क्षेत्र काल और भाव की अपेक्षा नहीं है। अर्थात् असत् भी है। घड़ा, घड़ा रूप में है कपड़ा चटाई रूप में नहीं है जैसे कि आचार्य हरिभद्रूसरिने अनेकान्तजय पताका में उसको सुन्दर रूप से घटित किया है। - ‘यतस्स्वद्रव्यक्षेत्रकाल-भावरूपेण सद्वर्तते परद्रव्यक्षेत्र कालभावेण चासत् ततश्च सच्चासच्च भवत्यन्यथा तदभावप्रसङ्गात् तथा च तद्र्व्यतः पार्थिवत्वेन सत् नाबादित्वेन तथा क्षेत्र त इहत्यत्वेन न पाटलिपुत्रकादित्वेन तथा कालतो घटकालत्वेन न [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VI VA द्वितीय अध्याय | 179 ]]
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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