________________ ‘पक्षपात रहितस्य तु युक्तिर्यत्र तत्र मतिरेति निवेशम् // 435 * आग्रही व्यक्ति अपने मत को पुष्ट करने के लिए युक्तियाँ ढूंढता है / युक्तियों को अपने मत की ओर ले जाते है। पर पक्षपात रहित मध्यस्थ व्यक्ति सिद्ध वस्तु स्वरूप को स्वीकार करने में अपनी मति की सफलता मानता है। अनेकान्त भी यही सिखाता है कि युक्तिसिद्ध वस्तु स्वरूप की ओर अपने मत को लगाओ, न कि अपने निश्चित मत की तरफ वस्तु और युक्ति की खींचतानी करके उन्हें बिगाड़ने का दुष्प्रयास न करो और कल्पना की उड़ान इतनी लम्बी न लो जो वस्तु की सीमा को ही लाँघ जाय। ___ अनेकान्त दर्शन ही एक ऐसा विराट एवं निष्पक्ष दर्शन है जिसका विरोध अन्यदर्शन करते हए भी उनको अनिच्छा से स्वीकार करना पड़ता है / उनका प्रतिक्षेप करने के लिए वे समर्थ नहीं है। आचार्य हरिभद्र द्वारा रचित षड्दर्शन समुच्चय के टीकाकार आचार्य गुणरत्नसूरि ने इस प्रकार समुल्लिखित किया है। (1) बौद्ध निर्विकल्प दर्शन को प्रमाण रूप भी मानते है तथा अप्रमाणरूप भी उनका एक ही दर्शन को प्रमाण और अप्रमाण दोनों रूप मानना अनेकान्तवाद का ही समर्थन करना है। धर्मकीर्ति नामके बौद्धाचार्यने स्वयं न्यायबिन्दु में कहा है कि - "समस्त चित्त सामान्य अवस्था को ग्रहण करनेवाले ज्ञान तथा चैत विशेष अवस्थाओं के ग्राहक ज्ञानों का स्वरूप संवेदन प्रत्यक्ष निर्विकल्प होता है।" अतः एक विकल्प ज्ञान को बाह्य नीलादि की अपेक्षा सविकल्प तथा स्वरूप की अपेक्षा निर्विकल्प / इस तरह निर्विकल्प और सविकल्प दोनों ही रूप स्वीकारना अनेकान्त के बिना कैसे समर्थ हो सकता है। एक ही अहिंसाक्षण को अपनी सत्ता आदि में प्रमाणात्मक तथा स्वर्ग प्रापणशक्ति या क्षणिकता में अप्रमाण मानने वाले बौद्धों ने अनेकान्त को स्वीकार किया ही है। इसी तरह सीप में चाँदी का भान कराने वाली मिथ्या विकल्प चाँदी रूप बाह्य अर्थ का प्रापक न होने से भ्रान्त है। परन्तु वैसा मिथ्या ज्ञान हुआ तो अवश्य है, उसका स्वरूप संवेदन तो होता ही है / अत: वह स्वरूप की दृष्टि से अभ्रान्त है / इस तरह एक ही मिथ्याविकल्प को बाह्य अर्थ में भ्रान्त तथा स्वरूप में अभ्रान्त मानना 'स्पष्ट अनेकान्त को स्वीकार करना है। एक ही चित्र पट ज्ञान को अनेक आकार वाला मानना एक को ही चित्र-विचित्र मानने वाला बौद्ध अनेकान्त का निषेध नहीं कर सकता है / यदि वह अनेकान्त का अपलाप करे तो उसको बलवद् अनिष्ट आ जाता है। फिर वह ज्ञान का एक आकार अनेक आकार मिश्रित है, यह भी उसके लिए अस्वीकृत हो जायेगा। इस तरह सुगत द्वारा एक ही ज्ञान को सर्वाकार मानना भी अनेकान्त का समर्थन है। नैयायिक और वैशेषिकों का अनेकान्त में समर्थन इन्द्रिय और पदार्थ के सन्निकर्ष से धूम का प्रत्यक्ष होता है तथा धूमज्ञान से अग्नि का अनुमान होता है। यहाँ इन्द्रिय सन्निकर्ष आदि प्रत्यक्ष प्रमाणरूप है तथा धूमज्ञान उसका फल है - एक ही धूमज्ञान में प्रत्यक्ष की दृष्टि से फलरूपता और अग्निज्ञान की दृष्टि से प्रमाण रूपता स्वयं वैशेषिकों ने मानी है। इस तरह एक ज्ञान में | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व अध्याय | 181