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________________ 'महामुनि कपिल सांख्य दर्शन में पुरुष को कूटस्थ, तटस्थ और ज्ञानशून्य रुप में स्वीकार कर सर्वज्ञता के प्रकाश से वंचित बना देते है। जबकि जैन दर्शन पुरुष को परम तत्त्वदर्शी सर्वज्ञ सिद्ध पुरुष घोषित करते है। . महर्षि पतञ्जलि ने अपने आत्म-पुरुष को क्लेश कर्म विपाकों असंस्पर्शित कहते हुए ईश्वर विशेष कहा है - यह एक व्याख्या सर्वज्ञता के समकक्षता में आ जाती है। जैन दर्शन सर्वज्ञ सर्वदर्शी मुक्त पुरुष तीर्थ प्रणेता तीर्थंकर रुप से संपूजित स्तवनीय सिद्ध करता है। इस परिपुष्टि में प्राचीन आचार्य सिद्धसेन जैसे प्रखर प्राच्यविदों ने परमपुरुष रुप से सर्वज्ञ को सर्वश्रद्धेय घोषित किया है। सर्वदर्शी सर्वज्ञ को सिद्धान्तों से संसिद्ध करने में जैनाचार्यों ने अपनी आत्म-प्रतिभा से सर्वज्ञवाद का लेखन श्रेष्ठतर बनाया है। दृष्टशास्त्राविरुद्धार्थं, सर्वसत्य सुखावहम्। मितं गम्भीरमाह्लादि वाक्यं यस्य स सर्ववित् // 416 आचार्य हरिभद्र सर्वविद् सर्वज्ञ की श्रद्धेय सुपरिभाषा सर्वज्ञ सिद्धि में दे रहे है। जिन सर्वदर्शी सर्वज्ञ का वाक्य दर्शित पठित शास्त्र से अविरुद्ध अर्थ प्रतिपादक होता है। सभी प्राणियों को सुख उपजाने में सहकारी बनता है। वाक्य परिमित होता है और गम्भीर गूढ गहन रहता है। साथ में अंतःकरण को आह्लादित करनेवाला रहता है। यह सर्वज्ञ वचन की एक परिचयात्मक प्रहेली है। आचार्य हरिभद्र ने सर्वज्ञ वचन में सभी के हितों का . समावेश करके आत्मीय आह्लाद गुणों को अभिवर्धित करनेवाला एक अनूठा गुण संपादित किया है। सर्वदर्शी सर्वज्ञ का एवम्भूतपद से परिचय देते हुए आचार्य हरिभद्र सर्वज्ञ सिद्धि में कहते है कि जिनका वाक्य राग-द्वेषादि तत्त्वों का विजेता बनकर जैनत्व की उपयोगिता प्रतिपादित करता है। ऐसा कथन स्याद्वाद के बलपर कहनेवाला केवल सर्वज्ञ ही हो सकता है अन्य नहीं। अनेकान्त शैली से उच्चारित कर अपने सर्वज्ञ स्वरूप को सिद्ध करने में जिनका सर्वतोमुखी उदारभाव सदा के लिए जगत में निगमागम रूप से निश्चित हुआ एवम्भूतं तु तद्वाक्यं जैनमेव ततः स वै। सर्वज्ञो नान्य एतच्च, स्याद्वादोक्त्यैव गम्यते / / 97 सूत्रकार महर्षि पतञ्जलि भी सर्वज्ञता को सर्वशक्तिमान् भाव से स्वीकार करते सूत्ररूप में परिचय देते सत्त्वपुरुषान्यताख्यातिमात्रस्य सर्वभावाधिष्ठातृत्वं सर्वज्ञातृत्वं च / 18 / रजस्-तमो-मल शून्य बुद्धि सत्त्व परम स्वच्छ भाव होने पर परवशीकार अवस्था में वर्तमान सत्त्व तथा पुरुष के भिन्नता ख्यातिमात्र में प्रतिष्ठित, सर्वभाव अधिष्ठातृ होता हुआ ग्रहण ग्राह्यात्मक सर्वस्व रुप में गुण समूह क्षेत्रज्ञ स्वामी होता है। [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIII अद्वितीय अध्याय | 173
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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