SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 224
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सर्वज्ञ पद लिप्सु लौकिक आचारों का अनुपालन करने में उत्कंठित न रहकर पारलौकिक पारदर्शित्वपद पर आरूढ होने का एक अभिनव आयाम स्वीकार करके, एकाकी, स्वावलंबी, सक्षम रहकर स्वयं सिद्ध सत्यवान् बनता हुआ सर्वज्ञता की सिद्धि का एक साधक, समाराधक होकर संस्कृति साहित्य में और समाज में सर्वज्ञता की सिद्धि का एक महास्रोत होकर दिग् दिगन्त तक दूरदर्शी रहने का एक रम्य अभिगम्य आदर्श उद्भावित करता सर्वदर्शित्व के सुयोग्य गुणों को स्वान्त में सर्जित करता सर्वज्ञता के सर्वोच्च पद का एक पथिक बन जाता है। उसका दृष्टिविज्ञान पारलौकिक परमार्थ से पवित्रतम होता हुआ प्रत्येक जीव के जीवन का ज्ञाता होता हुआ स्वयं का ज्ञाता रहकर सभी का सन्मार्ग दर्शन एक श्रेष्ठतर सर्वज्ञपद पर समलंकृत हो जाता है। युग-युग से दार्शनिक जगत में यही एक आवाज उद्भवित होती रही है कि क्या व्यक्ति अप्रीतिमान रह सकता है ? क्या अनासक्त योग से जीवन जी सकता है ? क्या एकाकी बनकर अपने आप के सुख को संचित कर सकता है ? यह प्रश्न संसार के है, समाज के है, स्वात्म परिवार के सदस्यों के है। इन सबका प्रत्युत्तर एक ही वाक्य में उद्बोधित करने का प्रयास सर्वज्ञ पुरुषों ने किया प्रतिपक्ष भावना तो रागादि क्षय।'४१४. . . प्रतिपक्ष भाव को पूर्णतया परिपालन करने से राग, द्वेष, मोह, भय से मुक्त हो सकते है। मुक्त रहना महत्त्वपूर्ण है। कहीं पर कभी भी बन्धनों में न आकर सर्वथा स्वयं को त्यक्त, विरक्त, विवेकी रखने का संप्रयास सर्वज्ञों के जीवन में मिलेगा। लेकिन कहीं कोविद ऐसे इस देश में जन्मे जिन्होंने मनुष्य को सर्वज्ञ होने का सर्वथा निषेध किया। उसमें महामीमांसक कुमारिल भट्ट अग्रगण्य है। मनुष्यता में सर्वज्ञता के सुंदर बीज सदा से समाये हुए है। ऐसा स्याद्वाद सिद्धान्त ने संसार के सामने एक सिद्धान्तमय संघोषणा की है। दर्शन जगत चकित हुआ। आश्चर्यों से अपने आप में आलोडित होने लगा। क्या यह संभव है ? है, तो कैसे इसको संभाव्य बनाया जाय? ऐसी विस्मयपूर्ण विवेचना केवल एकं विभु में ही दर्शित हो सकती है। अन्य में नहीं। ऐसी महामान्यता अक्षपाद कणाद जैसे वैशेषिक, नैयायिक दार्शनिकों ने वाङ्मय में प्ररूपित की। परंतु जैन दर्शन इन सभी मान्यताओं का अनुशीलन करता हुआ अग्रसर हुआ और सर्वज्ञ होने का सभी को अधिकार उपलब्ध करने का अवसर देता रहा। कर्मयोग के तारतम्य से आगे-पीछे रहने की संभावनाएँ अवश्य स्थिरा बनी। परंतु सर्वज्ञ की सिद्धि में किसी भी प्रकार की न्यूनता नहीं जगी। आचार्य हरिभद्र दार्शनिक जगत में समदर्शी होकर लोकतत्त्व निर्णय में अपनी उदारता प्रकट करते हुए कहते हैं कि - अवश्यमेषां कतमोऽपि सर्ववित् जगद्धितैकान्त विशालशासनः स एव मृग्यो मतिसूक्ष्मचक्षुषा, विशेषमुक्तैः किमनर्थ पंडितैः // 415 जगत के जीवों का हित करने में ही विशाल शासन जिसका हो इन में से सर्वज्ञ कोई भी हो, सूक्ष्मबुद्धि दृष्टिकोण से उसे अवश्य खोजना चाहिए। विशेष बातें करनेवाले ऐसे अनर्थ पंडितो से क्या ? अर्थात् अन्य देवों के विषय में विभिन्न बातें करनेवाले लेकिन जगत हित की आकांक्षा से रहित ऐसे देव सर्वज्ञ की कोटि में नहीं आ सकते है। आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIIIIIIIIIIIIIA द्वितीय अध्याय | 172)
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy