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________________ जैन तार्किको ने प्रारम्भ से ही त्रिकाल, त्रिलोकवर्ती जितने भी ज्ञेय पदार्थों को प्रत्यक्ष देखने वालों में सर्वज्ञता स्वीकारी है और उसका समर्थन भी किया है जैसे कि आचारांग में - ‘से भगवं अरहं जिणे केवली सव्वन्नू सव्वभावदरिसी सदेवमणुआ सुरस्स लोगस्स पज्जाए जाणइ। तं आगई गई ठिई चयणं उववायं भुत्तं पीयं कडं पडिसेवियं आविकम्मं रहोकम्मं लवियं कहियं मणो माणसियं सव्वलोए सव्वजीवाणं सव्वभावाइं जाणमाणे पासमाणे एवं चणं विहरइ।४१९ बौद्ध परम्परा में जिस प्रकार धर्मज्ञता और सर्वज्ञता का विश्लेषण करके धर्मज्ञता पर विशेष भार दिया गया है। उसी तरह जैन परम्परा में केवल धर्मज्ञता का समर्थन न करके पूर्ण सर्वज्ञता ही सिद्ध की गई है। आचार्य कुन्दकुन्द प्रवचनसार में केवलज्ञान को युगपत् अनन्त पदार्थों का जाननेवाला बताया है। तथा कहते है कि जो एक को जानता है वह सभी को जानता है। इस आत्मज्ञान की परम्परा की झलक ‘यः आत्मवित् स सर्ववित्' इत्यादि उपनिषद् वाक्यों में तथा आचारांग सूत्र में भी कहा है - 'जे एगं जाणइ से सव्वं जाणइ, जे सव्वं जाणइ से एगं जाणइ। - जो एक को जानता है वह सभी को जानता है तथा जो सभी को जानता है वह एक को जानता आचार्य कुन्दकुन्द की ऐसी मान्यता है - केवली भगवान व्यवहारनय से सभी पदार्थों को जानते है और देखते है पर निश्चयनय की दृष्टि में अपनी आत्मा को जानते और देखते है। इस प्रकार साधक ऐसी विविध युक्तियों के निरुपण के द्वारा भूत-भविष्य और वर्तमान तीनों कालों में स्थित समस्त पदार्थों के विषय में अबाधित ज्ञानवान् सर्वज्ञ है और सर्वज्ञप्रतिपादित वाक्य से तीर्थंकर देव ये ही. सर्वज्ञ है। क्योंकि सम्पूर्ण राग द्वेष रहित ज्ञानावरणादि कर्मों का क्षय होने पर केवलज्ञान की प्राप्ति होती है। जिससे उनका वचन प्रमाणसिद्ध होता है। क्योंकि असत्यता के कारण राग द्वेष का अभाव है। - ___इस प्रकार श्रमण संस्कृति का मौलिक मूलभूत आधार तीर्थंकर सर्वज्ञ ही है। इन्हीं के आज्ञामय निर्देशों का नैष्टिक अनुपालन परंपरा से चलता आ रहा है। अन्यान्य दर्शनों ने सर्वज्ञता के विषय में दुष्तर्क प्रयुक्त किये गये। फिर भी आ. हरिभद्र आदि जैनाचार्यों ने सर्वज्ञता को सिद्धि में सम्पूर्ण बौद्धिक कौशल को युक्तियुक्त बनाते हुए सर्वज्ञता की सिद्धि की है। ऐसे सर्ववित् सर्वज्ञ को सम्मान देने में जैन परम्परा अभी तक अचल रही है। सर्वज्ञता के अस्तित्व को इष्टदेवता रूप में स्वीकार करती जैन परंपरा उनके वचनों का अनुसरण कर रही है। सर्वज्ञता की यहीं सबसे बड़ी विशेषता रही है कि वह सर्वदोष द्वेष क्लेश से रहित अपनी आत्मवाणी का उपयोग करती अनेकान्त व्यवस्था देती रही है। यही अनेकान्त व्यवस्था आविर्भूत होकर सम्पूर्ण विश्व को आज विश्वस्त बनाने में विवेक सम्मत विचार प्रयुक्त करने में प्राञ्जल रही है। क्योंकि इतिहास की धुरि को धरती पर चिरंतन बनाने में सर्वज्ञवचन विशेष प्रमाणभूत रहे है। सर्वज्ञों ने समय-समय पर अस्तित्व को सर्वोपरि सिद्ध करके सभी के मन्तव्यों को सम्मान रुप से समादृत करने का अनेकान्तिक प्रयोग प्रथम स्वीकारा है। यह उनकी दार्शनिकता दूरदर्शिता बनकर दार्शनिक घटकों को वैचारिक विसंवादो से विमुक्त बनाती रही है। . [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VII अद्वितीय अध्याय | 174
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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