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________________ सर्वज्ञ हो सकते है यदि वे रागादिमुक्ति की तरह सर्वज्ञता के लिए भी प्रयत्न करे और जिसने वीतरागता प्राप्त कर ली है वे थोड़े प्रयास से भी सर्वज्ञ बन सकते है।४०० शान्तरक्षित भी इसी तरह धर्मज्ञता-साधन के साथ ही साथ सर्वज्ञता सिद्ध करके इसे वे शक्तिरूप से सभी वीतरागों में मानते हैं। प्रत्येक वीतराग जब चाहे तब किसी भी वस्तु को अनायास जान सकता है।०१ बुद्धने स्वयं को कभी सर्वज्ञ नहीं कहा। उन्होंने अनेक आत्मादि पदार्थों को अव्याकृत कहकर उनके विषय में मौन रहे। उन्होंने कहा मैंने धर्म का साक्षात्कार किया है और उसका ही उपदेश मैं देता है।४०२ वेदान्तीओं ने भी सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म, नेह नानास्ति किञ्चन।' आदि श्रुति द्वारा एक ही सर्व अन्तर्यामी सम्पूर्ण जगत के नियन्ता परमात्मा को सर्वज्ञ मानते है और दूसरे सभी पदार्थ को मायाकल्पित असत्य कहते है। उसके साथ ही रागद्वेषादि कर्म समूह से रहित शुद्ध स्फटिक समान निर्मल समवस्थित सर्वज्ञ को नहीं मानते। __ नैयायिकों भी सर्वज्ञ को जगत का कर्ता मानते हैं / लेकिन ज्ञानावरणीयादि कर्मों के क्षय से उत्पन्न केवलज्ञान केवलदर्शन से विभूषित सर्वज्ञ को नहीं मानते है। अक्षपादमते देवः सृष्टिसंहारकृच्छिवः। विभुर्नित्यैक सर्वज्ञो नित्यबुद्धि समाश्रयः / / 403 नैयायिक मत में जगत की सृष्टि तथा संहार करनेवाला, व्यापक, नित्य, एक, सर्वज्ञ, तथा नित्यज्ञानशाली शिव देवता है। इन्होंने इसे सर्वज्ञ इस प्रकार माना है कि सभी पदार्थों का सभी स्थितियों में साक्षात्कार करना ही ईश्वर की सर्वज्ञता है। यदि ईश्वर सर्वज्ञ न हो तब उसे उत्पन्न किये जाने वाले कार्यों की रचना में उपयोगी होने वाले जगत् के स्थान स्थान पर फैले हुए विचित्र परमाणु कणों का सम्यग् परिज्ञान न होने से उन्हें जोड़कर पदार्थों का यथावत् पालन करना कठिन हो जायेगा। सर्वज्ञ होने पर वह सभी के उपभोग योग्य वस्तुओं को बराबर जुटा लेगा और उनके पुण्य पाप के अनुसार साक्षात्कार करके सुख-दुखरूप फल भोगने के लिए उन्हे स्वर्ग -नरक आदि में भेज सकेगा, इस तरह ईश्वर सर्वज्ञ होने से उचित का उल्लंघन नहीं करता। इनके मतमें ईश्वर सदैव एक अद्वितीय सर्वज्ञ रहा है दूसरा कोई सर्वज्ञ नहीं है। इस अनादि ईश्वर को छोड़कर कोई भी कभी भी सर्वज्ञ नहीं हुआ। ईश्वर के अतिरिक्त अन्य योगी यद्यपि संसार के समस्त अतीन्द्रिय पदार्थों को जानते है, पर वे अपने स्वरूप को नहीं जानते उनका ज्ञान अस्वसंवेदी है, अत: ऐसे अनात्मज्ञ योगी सर्वज्ञ कैसे हो सकते है _ मीमांसक मतानुयायी जैमिनीय कहते है कि सर्वज्ञत्व आदि विशेषणों वाले कोई सर्वज्ञ सर्वदर्शी वीतराग या सृष्टिकर्ता नहीं है तथा जैनदर्शन में बताये हुए एक भी देव की सत्ता नहीं है जिनके वचन प्रमाणभूत माने जाय, जब बोलने वाला अतीन्द्रियार्थ का प्रतिपादन करने वाला कोई देव ही नहीं है तब कोई भी आगम सर्वज्ञ प्रणीत कैसे कहा जा सकता है ? अत: यह अनुमान स्पष्ट किया जा सकता है कि कोई भी पुरुष सर्वज्ञ नहीं है क्योंकि वह मनुष्य है जैसे कि गली -गली में चक्कर काटनेवाला मूर्ख आदमी / 404 [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VI द्वितीय अध्याय | 168
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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