SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 221
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सांख्यों में भी कार्य कारणत्व से रहित कमल पत्र के समान अलिप्त सर्वभोक्ता आत्मा को स्वीकारते है लेकिन ज्ञानांदि गुणों से विशिष्ट सर्वज्ञ को नहीं मानते। - तथा जो शरीर से भिन्न आत्मा की सत्ता को स्वीकारते ही नहीं ऐसे चार्वाकों के साथ सर्वज्ञ विषयक चर्चा करना ही व्यर्थ है / 05 अन्यदर्शन कार के प्रत्यक्षादि एक भी ऐसा प्रमाण नहीं है जो सर्वज्ञ की सिद्धि कर सके अतः अभाव प्रमाण के द्वारा उसका अभाव ही सिद्ध होता है ऐसा मानते है, यह बात उनकी युक्तिशून्य एवं प्रलापमात्र है क्योंकि जगत के प्रत्येक पदार्थ इन्द्रियप्रत्यक्ष जन्य बोधविलय ही हो ऐसा नही है अर्थात् इन्द्रियों के द्वारा सभी पदार्थों का प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं होता है जैसे कि समुद्र जल में स्थित रत्नादिक मीन आदि किसी को तो प्रत्यक्ष से प्रतिभासित होते है क्योंकि वे प्रमेय है जैसे कि घट आदि में रहनेवाले उसके रंग रूप आदि इस अनुमान से भी सर्वज्ञ की सिद्धि हो जाती है। जो वस्तु सत् होती है वह किसी न किसी प्रमाण का विषय होती है। जो वस्तु सद्भावग्राही प्रत्यक्ष आदि पाँच प्रमाणों का विषय नहीं होती वह अभाव प्रमाण का विषय होती है। अतः समुद्र के जल में रत्नादिक अभाव प्रमाण का ही विषय हुआ तब भी वह प्रमेय तो है ही। यदि समुद्र जल के रत्नादिक में प्रत्यक्षादि पाँच प्रमाणों की प्रवृत्ति रहने पर भी अभाव प्रमाण की प्रवृत्ति न हो तो अभाव प्रमाण व्यभिचारी हो जायेगा, उसका यह नियम दूर हो जायेगा कि जहाँ प्रत्यक्षादि पाँच प्रमाण प्रवृत्त नहीं होंगे वहाँ मैं भी प्रवृत्ति करूँगा। इस तरह समुद्र जल में स्थित रत्नादिक प्रमेय है तब उसका किसी न किसी महापुरूष को साक्षात्कार अवश्य होगा। और जिसको उसका साक्षात्कार होगा वही सर्वज्ञ है।०६६ तथा कोई आत्मा अतीन्द्रिय पदार्थों का साक्षात्कार करने वाला है / भट्ट अकलंक ने उसको सिद्ध करने के लिए “ज्योति ज्ञानाविसंवाद" हेतु का प्रयोग किया है। वे कहते कि अतीन्द्रिय पदार्थों का ज्ञान न हो सके तो ग्रहों की दशाओं और चन्द्रग्रहण आदि का भी उपदेश कैसे हो सकेगा? ज्योतिज्ञान अविसंवादि देखा जाता है / अत: यह मानना ही चाहिए कि उसका उपदेष्टा त्रिकाल दी है। जैसे सत्य स्वप्नदर्शन इन्द्रिय व्यापार आदि की सहायता के बिना ही भावी राज्य लाभ आदि का यथार्थ भान कराता है। उसी तरह सर्वज्ञ ज्ञान अतीन्द्रिय पदार्थों में स्पष्ट होता है / जैसे प्रश्न विद्या या ईक्षणिका विद्या से अतीन्द्रिय पदार्थों का भान होता है। उस ज्ञान अतीन्द्रिय पदार्थों का भासक होता है। क्योंकि दोष तो आगन्तुक है आत्मा के स्वभाव नहीं है / अत: प्रतिपक्षी साधनाओं से उनका समूल नाश हो जाता है और जब आत्मा निरावरण और निर्दोष हो जाता है, तब उसका पूर्ण ज्ञान स्वभाव खिल उठता है। जैसे कि न्यायविनिश्चय में लिखा है। ज्ञस्यावरणविच्छेदे ज्ञेयं किमवशिष्यते। अप्राप्यकारिणस्तस्मात सर्वार्थवलोकनम् // 407 ज्ञानावरणादि का विच्छेद होने पर ज्ञेय कुछ भी अवशेष नहीं रहता है तथा सम्पूर्ण अप्राप्यकारी पदार्थों का बोध उससे हो जाता है। [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIIIIIIIIIIIIIIIMA द्वितीय अध्याय | 169J
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy