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________________ सर्वज्ञवाद सर्वज्ञ सर्वदर्शी, समदर्शी परम परमात्मा के विषय में हमारे आगम ग्रन्थ सप्रमाण विवेचन देते है। आद्य अंग आचारांग में परमात्मा को 'सव्वणू' विशेषण से व्यक्त किया है। इसी प्रकार ‘नमुत्थुणं' में भी 'सव्वणूणं, सव्वदरिसिणं' ऐसा पाठ सर्वमान्य रहा है। ललितविस्तराकार आचार्य हरिभद्र ने परमात्मा को सर्वज्ञ और सर्वदर्शी कहकर सर्वोपरी तीर्थंकरत्व को अभिव्यक्त किया है। ऐसे सर्वज्ञ के विषय में अन्यान्य उत्तरवर्ती आचार्यों ने अपने-अपने ग्रन्थों में सर्वज्ञ महत्त्व को सर्वाधार बनाया है। भगवान् महावीर का काल सर्वज्ञवाद के विचारों से विशेष बना हुआ था। उस युग में प्रत्येक परमपुरुष ने अपनी सर्वज्ञता अभिव्यक्त करने का क्रम शोभनीय बनाया था। भगवान् महावीर के समकालीन तथागत पूर्णकश्यप आदि सर्वज्ञता की कोटि में गिने गये। यह सर्वज्ञ शब्द इतना प्रिय एवं साथ ही दुरुह हो गया कि प्रत्येक दार्शनिक इस शब्द से स्थित प्रज्ञ बनकर इस पर विविध विचारणाएँ व्यक्त करने लगा, लेकिन सर्वज्ञता को स्पर्श करने में कितने ही शिथिल रहे और कितने ही तर्कजाल के सम्मोह में उलझे रहे। सर्वज्ञ की व्युत्पत्ति सर्व जानन्तीति सर्वज्ञाः / 396 सर्वज्ञ वे कहे जाते है जो समस्त द्रव्य एवं पर्याय को जानते है समस्त जानने का कारण यह है कि वे ज्ञानावरणादि कर्मों से बिलकुल मुक्त हो गये है और केवलज्ञान-केवलदर्शन के स्वभाव को प्राप्त कर लिया है। अन्यदर्शन में सर्वज्ञ का स्वरूप - सौगत-नैयायिक-वैशेषिक-सांख्य-वेदान्ती आदि दर्शनकारों ने भी अपनी मान्यता अनुसार सर्वज्ञ की सिद्धि की है। लेकिन उनके द्वारा प्रतिपादित सर्वज्ञ का स्वरूप यथार्थ नहीं है - सौगत बौद्धों ने सर्वज्ञ को इष्ट अर्थ मात्र को जाननेवाला ही स्वीकारा है। सभी पदार्थों के दृष्टा नहीं माना . बौद्धाचार्य धर्मकीर्ति ने लिखा है कि बुद्ध चतुरार्यसत्य का साक्षात्कार करते है और उसके अन्तर्गत मार्ग सत्य यानि धर्म में अपने अनुभव के द्वारा अन्तिम प्रमाण भी है। वे करुणा युक्त होकर कषायों से संतप्त जीवों के उद्धार के लिए अपने देखे गये मार्ग का उपदेश देते है।२९८ कोई पुरुष संसार के सभी पदार्थों को जाने या न जाने हमें इस निरर्थक बात से कोई प्रयोजन नहीं है। हमें तो इतना ही देखना है कि वह इष्टतत्त्व का साक्षात्कार करता है या नहीं ? वह धर्मज्ञ है या नहीं ? मोक्षमार्ग में अनुपयोगी कीडे-मकोडे की संख्या के परिज्ञान से धर्म का क्या संबंध ? धर्मकीर्ति सिद्धान्ततः सर्वज्ञ का विरोध न करके उसे निरर्थक अवश्य कहते है।३९९ धर्मकीर्ति ने प्रत्यक्ष से ही धर्म का साक्षात्कार मानकर अर्थात् प्रत्यक्ष से होनेवाली धर्मज्ञता का समर्थन करके वीतराग धर्मज्ञ पुरुष का ही धर्म में अन्तिम प्रमाण और अधिकार माना है। धर्मकीर्ति के टीकाकार प्रज्ञाकर गुप्त ने सुगत को धर्मज्ञ के साथ साथ सर्वज्ञ त्रिकालवर्ती यावत् पदार्थों का ज्ञाता भी सिद्ध किया है और लिखा है कि सुगत की तरह अन्य भी | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VINNO A द्वितीय अध्याय | 167 )
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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