________________ सद्भावरूप पारमार्थिक पदार्थ नव है - जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष। . . इसी प्रकार नव-तत्त्व का पाठ उत्तराध्ययन सूत्र,३७९ नवतत्त्व,३८° पंचास्तिकाय८१ आदि में भी मिलता तत्त्ववेत्ता आचार्य हरिभद्रसूरि ने उन्हीं पूर्वधरों का अनुसरण करते हुए षड्दर्शन समुच्चय में नव तत्त्व का समुल्लेख किया है। जीवाजीवौ तथा पुण्यं पापमाश्रवसंवरौ। बन्धो विनिर्जरा मोक्षौ, नव तत्त्वानि तन्मते // 282 षड्दर्शन समुच्चय की टीका में इन तत्त्वों पर विशेष विश्लेषण किया गया है, वह इस प्रकार जीव का लक्षण सुख-दुःख तथा उपयोग है। जिसमें जानने देखने की शक्ति का सामर्थ्य हो वह जीव है। तथा इससे विपरीत धर्मास्तिकायादि अजीव है। जीव और अजीव इन दोनों तत्त्वों में समस्त तत्त्वों का अन्तर्भाव हो जाता है। वैशेषिक के द्वारा माने गये ज्ञान, सुख, दुःख, रूप, रस आदि गुण, कर्म, सामान्य, विशेष समवाय आदि सात पदार्थ भी जीव और अजीव से भिन्न अपना कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं रखते है। वे इन्हीं के स्वभावरूप होने से जीव-अजीव में अंतर्गत हो जाते है। कोई प्रमाण गुण आदि पदार्थों को द्रव्य से सर्वथा भिन्न रूप में नहीं जाना जा सकता। वेंतो द्रव्यात्मक ही है। यदि गुण आदि पदार्थ द्रव्य से भिन्न माने जावे तो जैसे गुण रहित द्रव्य का अभाव हो जाता है उसी प्रकार द्रव्यरूप आश्रय (आधार) के बिना गुणादि निराधार होकर असत् हो जायेंगे। अतः गुण आदि का द्रव्य से तादात्म्य संबंध मानना चाहिए। ___ इसी प्रकार बौद्धों के द्वारा माने गये दुःख, समुदय आदि चार आर्यसत्य का भी जीव और अजीव में समावेश हो जाता है। अर्थात् जगत के समस्त पदार्थ जीवराशि में या अजीव राशि में अन्तर्भूत हो जाते है। इससे अलंग तीसरी कोई राशि नहीं है। जो इन दो राशियों में सम्मिलित नहीं है वे मानों खरगोश के सिंग की भांति असत् है। बौद्धों के दुःख तत्त्व का बन्ध में, समुदय का आश्रव में, निरोध का मोक्ष में तथा मार्ग का संवर और निर्जरा में अन्तर्भाव हो जाता है। वस्तुतः नव तत्त्वों में दो ही तत्त्व मौलिक है। शेष तत्त्वों का इनमें समावेश हो जाता है। जैसे कि - पुण्य और पाप दोनों कर्म है। बन्ध भी कर्मात्मक और कर्म पुद्गल के परिणाम है तथा पुद्गल अजीव है। आश्रव मिथ्यादर्शनादि रूप परिणाम है और जीव का है। अतः आश्रव आत्मा (जीव) और पुद्गलों से अतिरिक्त कोई अन्य पदार्थ नहीं है। संवर आश्रव के निरोधरूप है। वह देशसंवर और सर्वसंवर के भेद से आत्मा का निवृत्ति परिणाम है। निर्जरा कर्म का एकदेश से क्षयरूप है। जीव अपनी शक्ति से आत्मा से कर्मों का पार्थक्य संपादन करता है। मोक्ष भी समस्त कर्म रहित आत्मा है। अर्थात् जीव-अजीव इन दोनों में शेष सभी समाविष्ट हो जाते | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व / द्वितीय अध्याय | 159