SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 210
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इस प्रकार काल विषय चर्चा बौद्ध दर्शन में विस्तार से दी गई है। पर यहाँ इतना जानना ही आवश्यक होने से विस्तार को विराम देते है। ___जैन की काल सम्बन्धी मान्यता एक सूक्ष्मगम्य है। आ. हरिभद्रसूरि ने काल विषयक विवेचन बहुत ही विवेकपूर्ण एवं वैशिष्ट्य युक्त किया है। तत्त्व विचार जैन शासन में सर्वज्ञ भगवंत जब मोक्ष मार्ग की प्ररूपणा करते है तब यह आवश्यक हो जाता है कि मोक्षपथ पर समारूढ होनेवाले मुमुक्षुओं को उन साधनों का जानना, क्योंकि साधनों के जाने बिना साध्य की संप्राप्ति संभव नहीं है। अतः उन जीवों के हित के लिए नव-तत्त्व का प्रतिपादन करते है। जैन वाङ्मय के कल्पतरु समान द्वादशांगी के दूसरे सूत्रकृतांग तथा तीसरे अंग ठाणांग में स्वयं गणधर भगवंतों उनकी रचना करते है। जिससे उसकी उपादेयता और बढ़ जाती है। जैन शासन में मोक्ष मुख्य साध्य है ही। अतः उसको तथा उसके कारणों को जाने बिना मुमुक्षुओं की मोक्षमार्ग में प्रवृत्ति अशक्य है। इसी प्रकार यदि मुमुक्षु मोक्ष के विरोधी (बन्ध और आश्रव) तत्त्वों और उनके कारणों का स्वरूप न जाने तो भी वह अपने पथ पर अस्खलित प्रवृत्ति नहीं कर सकता है। मुमुक्षु को सर्वप्रथम यह जानना आवश्यक हो जाता है कि मेरा शुद्ध स्वरूप क्या है ? और उस प्रकार की ज्ञान की संपूर्ति के लिए जैन वाङ्मय में नव तत्त्वों की विचारणा विस्तृत रूप से विवेचित की गई है। . . नव तत्त्व के विषय में गहन एवं रहस्य युक्त चिन्तन आगमों में प्रस्तुत किया गया है। यह तत्त्व-विचार जैन दर्शन की सैद्धान्तिक मान्यता है। __जीवतत्त्व के कथन द्वारा जीव को मोक्ष का अधिकारी बताया गया है तथा अजीव तत्त्व से यह सूचित किया गया है संसार में ऐसा भी कोई तत्त्व है जिसे मोक्षमार्ग का उपदेश नहीं दिया जाता है तथा यह तत्त्व जीव पर भी अपना आधिपत्य स्थापित करने में समर्थ है। यदि जीव अपने आत्म स्वरूप और ज्ञान-चेतना से विमुख बन जाये तो / बंध से मोक्ष के विरोधी भावों का और आश्रव तथा पाप से उक्त विरोधी भावों के कारणों का निर्देश किया गया है। संवर और निर्जरा द्वारा मोक्ष के साधनों को सूचित किया गया है। पुण्य तत्त्व कथंचित् हेय एवं कथंचित् उपादेय तत्त्व है, जो निर्जरा में परम्परा से सहायक बनता है। जैन दर्शन में नवतत्त्व है। उसी को सात तत्त्वों में दो तत्त्वों में अन्तर्भूत करके दिखाया है। अन्यदर्शनकारों की भी तत्त्व-मीमांसा है। लेकिन उनका विचार विमर्श विभिन्न रूप से किया गया है। श्री स्थानांग में नव-तत्त्व का उल्लेख इस प्रकार मिलता है - ‘णव सब्भावपयत्था पण्णता तं जहा जीवा, अजीवा, पुण्णं, पावं, आसवो, संवरो, णिज्जरा, बंधो, मोक्खो।'३७८ | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VII द्वितीय अध्याय 158
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy