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________________ मन्द गमन से सौ योजन सौ दिन में जाता है वही देवदत्त विद्या के प्रभाव से शीघ्र गमन आदि करके सौ योजन एक दिन में भी जाता है। इसी प्रकार शीघ्र गति से चौदह रज्जु गमन करने में परमाणु को एक ही समय लगता है। * समय क्षेत्र के अन्दर तो काल को सभी स्वीकार करते हैं। लेकिन योगशास्त्र की टीका के अनुसार समयक्षेत्र (अढीद्वीप) के बाहर भी काल को स्वीकारा है। तत्त्व तो केवली भगवंत जानते है। इस प्रकार काल द्रव्य का वर्णन विभिन्न प्रकार से किया। काल बौद्ध दार्शनिकों के लिए नितान्त विवाद का विषय रहा है। भिन्न-भिन्न बौद्ध सम्प्रदायों की इस विषय में विभिन्न मान्यता रही है। सौगान्तिकों की दृष्टि में वर्तमान काल ही वास्तविक सत्यता है। भूतकाल की और भविष्यकाल की सत्ता निराधार एवं काल्पनिक है। विभज्यवादियों का कथन है कि वर्तमान धर्म तथा अतीत विषयों में जिन कर्मों के फल अभी तक उत्पन्न नहीं हये है वे ही दोनों पदार्थ वस्तुतः सत् है। वे भविष्य का अस्तित्व नहीं मानते तथा अतीत विषयों का भी अस्तित्व नहीं मानते जिन्होंने अपना फल उत्पन्न कर दिया है। काल के विषय में इस प्रकार विभाग मानने के कारण सम्भवतः यह समुदाय विभज्यवादी नाम से प्रसिद्ध हुआ। सर्वास्तिवादियों का काल सम्बन्धी सिद्धान्त उसके नाम के अनुरूप ही है। उनके मत में समग्र धर्म त्रिकाल स्थायी होते है। वर्तमान, भूत तथा भविष्य इन तीनों कालों की वास्तविक सत्ता है। इस सिद्धान्त के प्रतिपादन के निमित्त बसुबन्धु ने चार युक्तियाँ प्रदर्शित की है। त्र्यध्वंकास्ते तदुक्ते द्वयात् सद्विषयात् फलात् तदस्तिवादात् सर्वास्तिवादी मतः॥ (क) तदुक्ते - भगवान बुद्ध ने संयुक्तागम (3/14) में तीनों कालों की सत्ता का उपदेश दिया है / जैसे कि - ‘रूपमनित्य अतीतम् अनागतं कः पुनर्वादः प्रत्युत्पन्नस्य।' रूप अनित्य होता है, अतीत और अनागत होता है। वर्तमान के लिए कहना ही क्या ? (ख) द्वयात् - विज्ञान दो हेतुओं से उत्पन्न होता है। इन्द्रिय तथा विषय से। चक्षुर्विज्ञान चक्षुरिन्द्रिय तथा रूप से उत्पन्न होता है। श्रोतविज्ञान श्रोत तथा शब्द से, मनोविज्ञान मन तथा धर्म से। यदि अतीत और अनागत धर्म न हो तो मनोविज्ञान दो वस्तुओं से कैसे उत्पन्न हो सकता है। (ग) सद्विषयात् - विज्ञान के लिए विषय की सत्ता होने से विज्ञान किसी आलम्बन विषय को लेकर ही प्रवृत्त होता है। यदि अतीत तथा भविष्य वस्तुओं का अभाव हो तो विज्ञान निरालम्बन (निर्विषय) हो जायेगा। फलात् - फल उत्पन्न होने से फल की उत्पत्ति के समय विपाक का कारण अतीत हो जाता है, अतीत कर्मों का फल वर्तमान में उपलब्ध होता है। यदि अतीत का अस्तित्व नहीं है तो फल का उत्पाद ही सिद्ध नहीं हो सकता। अतः सर्वास्तिवादियों की दृष्टि में अतीत अनागत की सत्ता उतनी ही वास्तविक है जितनी वर्तमान की।३७७ | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व / द्वितीय अध्याय | 157 ]
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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