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________________ स्थिति है, वही जिसका स्वरूप है वह द्रव्यपर्यायरूप व्यवहार काल है। ___ अपने-अपने उपादानरूप कारण से स्वयं ही परिणमन को प्राप्त होते हुए पदार्थों के जैसे कुम्भकार के चक्र के भ्रमण में उसके नीचे की कीली सहकारिणी है, अथवा शीतकाल में छात्रों के अध्ययन में अग्नि सहकारी है इस प्रकार जो पदार्थपरिणति में सहकारिता है उसी को वर्तना कहते है और वह वर्त्तना ही है लक्षण जिसका उस वर्त्तन लक्षण का धारक कालाणुद्रव्य निश्चयकाल है।३७३ लोकप्रकाश के अन्तर्गत प्रमाण योग शास्त्र के प्रथम प्रकाश की टीका में ज्योतिष शास्त्रों में जिस . समयादि का मान कहा हुआ है वह व्यवहार काल है तथा पदार्थों के परिवर्तन के लिए लोकाकाश प्रदेश में जो भिन्न भिन्न काल के अणु स्थित है वह मुख्य काल है।२७४ अभिधान राजेन्द्र कोष में भी दिगम्बर प्रक्रिया के अनुसार काल के दो भेद बताये है। मन्दगत्याऽप्यणुर्यावत् प्रदेशे नभसः स्थितौ। याति यत्समयस्यैव स्थानं कालाणुरुच्यते // 375 तथा जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति की टीका में - एक समय रूप काल वर्तमान कहलाता है और वर्तमानकाल निश्चयकाल है शेष सभी व्यवहार काल है। जो लोकाकाश के एक एक प्रदेशपर रत्नों की राशि के समान परस्पर भिन्न-भिन्न होकर एक एक स्थित है वे कालाणु है असंख्यात द्रव्य है। लोयायासपदेसे इक्किक्के जे ठिया हु इक्किक्का। रयणाणं रासी इव कालाणू असंख दव्वाणि // 376 लोक के बाह्य भाग में कालाणु द्रव्य के अभाव से अलोकाकाश में परिणाम कैसे हो सकता है ? इसका सुंदर समाधान करते हुए कहते है कि जिस प्रकार चाक के एक देश में विद्यमान दंड की प्रेरणा से सम्पूर्ण कुम्भकारके चाक का परिभ्रमण हो जाता है उस तरह से अथवा जैसे एक देश में प्रिय ऐसे स्पर्शन इन्द्रिय के विषय का अनुभव करने से समस्त शरीर में सुख का अनुभव होता है उस प्रकार लोक के मध्य में स्थित जो कालाणुद्रव्य को धारण करनेवाला एक आकाश है उससे भी सर्व आकाश में परिणमन होता है। समय की गति - यहाँ कोई कहता है कि एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश में गमन करता है उतने काल का नाम समय है। यह शास्त्रों में कहा है और इस दृष्टिकोण से चौदह रज्जुगमन करने में जितने आकाश प्रदेश है उतने समय ही लगने चाहिए, परन्तु शास्त्रों में यह भी कहा गया है कि पुद्गल परमाणु एक समय में चौदह रज्जुपर्यन्त गमन करता है / यह कथन कैसे संभव हो सकता है ? इसका प्रत्युत्तर इस प्रकार है कि आगम में परमाणु का एक समय में एक आकाश के प्रदेश में गमन करना कहा है, वह तो मन्द गमन की अपेक्षा है और जो परमाणु का एक समय में चौदह रज्जु का गमन कहा है वह शीघ्र गमन की अपेक्षा से। इस कारण परमाणु को शीघ्रातिशीघ्र चौदह रज्जु प्रमाण गमन करने में भी एक ही समय लगता है। इस विषय को दृष्टांत से समझाते है - जिस प्रकार जो देवदत्त | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIIIIIIIIIIIA द्वितीय अध्याय | 156
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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