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________________ है फिर नव तत्त्वों का कथन व्यर्थ में किस लिए किया गया ? इसका समाधान शास्त्रों में इस प्रकार मिलता है कि यद्यपि ये सभी जीव और अजीव में ही अन्तर्भूत है फिर भी लोगों को पुण्य पाप आदि में सन्देह रहता है। अतः उनके सन्देह को दूर करने के लिए पुण्य-पाप का स्पष्ट निर्देश कर दिया है। संसार के कारणों का स्पष्ट कथन करने के लिए आश्रव और बन्ध का तथा मोक्ष और मोक्ष के साधनों का विशेष निरूपण करने के लिए संवर तथा निर्जरा का स्वतन्त्र रूप से कथन किया है। आगमों में इसका विस्तार से वर्णन मिलता है। नव-तत्त्व के भेद प्रभेदों का वर्णन निम्नोक्त प्रकार से मिलता है - (1) जीवतत्त्व - जीव शब्द की व्युत्पत्ति, व्याख्या, लक्षण आदि जीवास्तिकाय में विस्तार से कह दिया है। अतः यहाँ केवल दिशा निर्देश के लिए पुनः कथन किया जा रहा है। जो चेतनागुण से युक्त है अथवा जो ज्ञान दर्शनरूप उपयोग को धारण करनेवाला है उसे जीव कहते है। तत्त्वार्थ राजवार्तिक में दिगम्बराचार्य कुन्दकुन्द ने इस प्रकार लक्षण किया है - 'त्रिकालविषयजीवानुभावनाजीव।" अथवा 'चेतनास्वभावत्वात्तद्विकल्प लक्षणो जीवः / '383 प्राण पर्याय के द्वारा तीनों काल के विषय का अनुभव करने से वह जीव कहलाता है अथवा जिसका इतर द्रव्यों से भिन्न एक विशिष्ट चेतना स्वभाव है तथा उसके विकल्प ज्ञान-दर्शन आदि गुण है और उसके सानिध्य से आत्मा ज्ञाता दृष्टा, कर्ता, भोक्ता होता है उस लक्षण से युक्त वह जीव है। चार्वाक् मतवाले जीव को स्वतन्त्र पदार्थ नहीं मानते। अतः वे उपरोक्त कथन से असहमत होकर इस प्रकार चर्चा करते है कि इस संसार में आत्मा नाम का कोई स्वतन्त्र पदार्थ नहीं है। पृथिवी जल आदि का एक विलक्षण रसायनिक मिश्रण होने से शरीर में चेतना प्रकट हो जाती है। इन चैतन्य के कारणभूत शरीराकार भूतों को छोड़कर चैतन्य आदि विशेषणोंवाला परलोक गमन करनेवाला कोई भी आत्मा नहीं है। कूटस्थ नित्य, जैसा का तैसा, अपरिवर्तनशील मानना भी युक्ति तथा अनुभव के विरुद्ध है। सांख्य आत्मा को कर्ता नहीं मानता है। उनके मत में यह करना धरना प्रकृति का काम है। पुरुष तो आराम करने के लिए भोगने के लिए ही है वह भी उस बिचारी प्रकृति पर दया करके ही उपचार से भोक्ता बनता है। उनकी यह मान्यता भी प्रमाण शून्य है। आत्मा वस्तुतः कर्मों का कर्ता है, क्योंकि वह अपने किये हुए कर्मों के फल को भोगता है। जो अपने कर्मों के फल को भोगता है वह कर्ता भी होता है। जैसे अपनी लगायी हुई खेती को काटकर भोगनेवाला किसान / यदि सांख्य पुरुष को कर्ता नहीं मानता है तो उनका पुरुष वस्तु ही नहीं बन सकेगा। सांख्य के द्वारा माना गया पुरुष सत् न होकर आकाशपुष्प की भाँति असत् बन जायेगा। ___जीव दो प्रकार के है / जैसे कि उमास्वाति के तत्त्वार्थ सूत्र में निर्दिष्ट है - ‘संसारिणो मुक्ताश्च / '384 संसारी और मुक्त। आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIIIIIIIIIA द्वितीय अध्याय 160 )
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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