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________________ वर्णन अनिर्वचनीय है जो परमर्षि है, वे आत्मप्रत्यक्ष के द्वारा उसको जान सकते है। लेकिन उसके स्वरूप को अभिव्यक्त करके दूसरों को बोध नहीं करा सकते। जो परमात्मा अनुत्तर लक्ष्मी के धारक और छद्मस्थ अवस्था को नष्ट कर लोकालोक प्रकाशक केवलज्ञान को प्राप्त हो चुके है, वे भगवान भी ज्ञेयमात्र को विषय करनेवाले अपने केवलज्ञान के द्वारा उसको जान लेते है परन्तु दूसरों को उसके स्वरूप का निदर्शन नहीं कर सकते। क्योंकि वह परम निरुद्ध है। उसके स्वरूप का निरूपण जिनके द्वारा हो सकता है, ऐसी भाषा वर्गणाओं को वे केवली भगवंत जब तक ग्रहण करते है तब तक असंख्यात समय हो जाते है। समय इतना परम निरुद्ध-अत्यल्प है कि उसके विषय में पुद्गल द्रव्य की भाषावर्गणाओं का ग्रहण और परित्याग करने में इन्द्रियों का प्रयोग होना दुशक्य है। ___ इस प्रकार समय का स्वरूप है। यह काल की सबसे छोटी जघन्य पर्याय है। असंख्यात समय की एक आवलिका होती है। संख्यात आवलिकाओं का एक उच्छ्वास अथवा एक निःश्वास होता है। हृष्ट, पुष्ट, तन्दुरस्त निश्चित तथा मध्यमवय को धारण करनेवाले मनुष्य की एक धड़कन में जो समय लगता है उसे प्राण कहते है, ऐसे सात प्राणों के समूह को एक स्तोक, सात स्तोक प्रमाण काल को एक लव, साडे अडतीस लव की एक नाली, दो नाली का एक मुहूर्त, तीस मुहूर्त का एक अहोरात्र, पन्द्रह अहोरात्र का एक पक्ष, शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष ये दो पक्ष का एक मास, दो मास की एक ऋतु, तीन ऋतु का एक अयन और दो अयन का एक संवत्सर होता है, पाँच वर्ष का एक युग होता है। इस प्रकार अनुक्रम से आगे गिनते हुए पूर्वाङ्ग, अयुत, कमल, नलिन, कुमुद, तुटि, अडड, अवव, हाहा और हूहू भेद माने है। यहाँ तक संख्यात काल के भेद है क्योंकि ये गणित शास्त्र के विषय हो सकते है।३५६ ___ भाष्यकार ने जो स्थान बताये है वे अत्यल्प है। आगम में जो क्रम है वह इस प्रकार है - तुटपङ्ग, तुटिका, अडडाङ्ग, अड्डा, अववाङ्ग, अववा, हाहाङ्ग, हाहा, हूह्यङ्ग, हुहुका, उत्पलाङ्ग, उत्पल, पद्माङ्ग, पद्म, नलिनाङ्ग, नलिन, अर्थनियूराङ्ग, अर्थनिपूर, चूलिकाङ्ग, चूलिका, शीर्षप्रहेलिकाङ्ग, शीर्षप्रहेलिका - ये सब चौरासी लाख गुण है। सूर्यप्रज्ञप्ति में पूर्व के ऊपर लताङ्ग लेकर शीर्षप्रहेलिका पर्यन्त गणित शास्त्र का विषय बताया है।३५७ एक योजन लम्बा और एक ही योजन चौडा तथा एक ही योजन ऊँचा-गहरा एक गोल गड्ढा बनाना चाहिए। उसमें एक दिन या रात्रि से लेकर सात दिन तक के उत्पन्न मेढे के बच्चे के बालों से उस गड्ढे को दबाकर अच्छी तरह पूर्ण भरना चाहिए। दिगम्बर सम्प्रदाय के अनुसार उन बालों के ऐसे टुकडे करना जिनका फिर कैंची से दूसरा टुकडा न हो सके ऐसे बालों से गड्ढा भरना चाहिए। पुनः सौ सौ वर्ष में उन बालों में से एक एक बाल निकाले। इस तरह निकालते जब वह खाली हो जाए और उसमें जितना काल व्यतीत होता है वह पल्य है।३५८ दिगम्बर सम्प्रदाय में इस प्रकार 3 भेद माने है - व्यवहारपल्य, उद्धारपल्य और अद्धापल्य। इनके उत्तर भेद अनेक है। पल्य के दस कोडाकोडी से गुणा करने पर एक सागर होता है। चार कोडाकोडी सागर का एक सुषमसुषमा, तीन आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VII द्वितीय अध्याय 153)
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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