________________ कोडाकोडी सागर का सुषमा, दो कोडाकोडी सागर का सुषमादुषमा बयालीस हजार वर्ष कम एक कोडाकोडी सागर का दुषम सुषमा, इक्कीस हजार वर्ष का दुषम और इक्कीस हजार वर्ष का दुषमदुषमा काल माना है। इस प्रकार छ आरा का काल दश कोडाकोडी सागर का है। इस दश कोडाकोडी सागर के अनुलोम सुषम सुषमा से लेकर दुषमदुषमा तक के काल को अवसर्पिणी कहते है। दस कोडाकोडी सागर के ही प्रतिलोम दुषमदुषमा से लेकर सुषमसुषमा पर्यन्त काल को उत्सर्पिणी कहते है / दिन के पश्चात् रात्रि और रात्रि के पश्चात् दिन की भाँति अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी का भी क्रम चलता रहता है। 20 कोडाकोडि सागरोपम को एक कालचक्र कहते है। __उपमान असंख्यातरूप है वह करके नहीं बताया जा सकता। अतः उपमा देकर छोटे बड़े का बोध कराया जाता है। जैसे कि पल्य और सागर / ऐसा प्रयोग न तो किसी ने किया है और न हो सकता है। यह तो बुद्धि के द्वारा कल्पना करके समझाया जाता है। सामान्य से अनन्त उसको कहते है कि जिस राशि का कभी अन्त न आवे। पुद्गलपरावर्तनादिक अनंतकाल कहलाता है।३५९ इस प्रकार काल का संख्यात, असंख्यात तथा अनंत तीन प्रकार का विवरण नाम मात्र से तत्त्वार्थटीका में पुनिस्त्रिविधः संख्येय असंख्येयोऽनन्त इति।'३६० अभिधान राजेन्द्र कोष में - इस प्रकार है - ‘संखेजमसंखेजा, अणंतकालो णु णिदिट्ठो।'३६१ लोकप्रकाश के चौथे भाग में अर्थनिपुर के आगे अयुतांग, अयुत नयुतांग, नयुत, प्रयुतांग, प्रयुत / उसके बाद चूलिकांग, चूलिका, शीर्षप्रहेलिकांग, शीर्षप्रहेलिका। इस प्रकार संख्याता का क्रम बताया है। अंकस्थान माथुरी वाचना के अनुसार है।३६६२ श्री भगवती सूत्र,२६३ तथा जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति आदि में भी इस प्रकार का अंक का क्रम दिया हुआ है। वल्लभी वाचना में इस प्रकार है - 84 लाख पूर्व के ऊपर एक लताङ्ग, 84 लाख लताङ्गे एक लता, 84 लाख लता से एक महालतांग उसको 84 से गुणा करने पर महालता। इस प्रकार शीर्ष प्रहेलिका तक गुणना। उसके नाम नलिनांग, नलिन, महानलिनांग, महानिल, पद्मांग, पद्म, महापद्मांग, महापद्म, कमलांग, कमल, महाकमलांग, महाकमल, कुमुदांग, कुमुद, महाकुमुदांग, महाकुमुद, त्रुटितांग, त्रुटित, महात्रुटितांग, महात्रुटित, अडडांग, अडड, महाअडडांग, महाअडड, उहांग, उह, महाउहांग, महाउंग, शीर्षप्रहेलिकांग, शीर्षप्रहेलिका इस प्रकार संख्याता होता है।३६४ संख्याता का पूर्वोक्त स्वरूप अभिधान राजेन्द्र कोष में भी मिलता है।३६५ तथा ध्यानशतकवृत्ति में अत्यल्प संख्याता का स्वरूप दिखाया है। वह इस प्रकार है - कालो परमो निरुद्धो, अविभज्जो तं तु जाण समयं तु। समया य असंखेज्जा भवंति ऊसास निसासा॥ [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIII द्वितीय अध्याय 154