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________________ इस प्रकार काल विषयक मान्यता अन्य दर्शनकारों की और जैनदर्शन की भी मिलती है / जैसे कि सांख्यकारिका माठरप्रवृत्ति२४३, सन्मतितर्कटीका, गोम्मटसार कर्मकाण्ड 45, माध्यमिकवृत्ति 46, चतुःशतकम्, मैत्र्याव्युपनिषद्वाक्यकोष४८, नन्दीसूत्र मलयगिरि टीका४९ आदि। काल शब्द के ग्यारह निक्षेपे हैं - (1) नामकाल (2) स्थापनाकाल (3) द्रव्यकाल (4) अद्धाकाल (5) यथायुष्ककाल (6) उपक्रमकाल (7) देशकाल (8) कालकाल (9) प्रमाणकाल (10) वर्णकाल (11) भावकाल।३५० अनास्तिकाय द्रव्यकाल - कालद्रव्य मनुष्यलोक में विद्यमान है। जम्बूद्वीप, घातकीखण्ड तथा अर्धपुष्करावद्वीप इस प्रकार ढाई द्वीप में ही मनुष्य होते है। अतः इन ढाई द्वीप को ही मनुष्यलोक कहते है। काल द्रव्य का परिणमन या कार्य इस ढाई द्वीप में देखा जाता है। यह अत्यन्त सूक्ष्म तथा अविभागी एक समय शुद्ध कालद्रव्य है। यह एक प्रदेशी होने के कारण अस्तिकाय नहीं कहा जाता है। क्योंकि प्रदेशों के समुदाय को अस्तिकाय कहते है। यह एक समय मात्र होने से निःप्रदेशी है। षड्दर्शन समुच्चय की टीका में इसका उल्लेख मिलता है। तस्मान्मानुषलोकव्यापी कालोऽस्ति समय एक इह। एकत्वाच्च स कायो न भवति कायो हि समुदायः // 351 कालद्रव्य एक समय रूप है तथा मनुष्य लोक में व्याप्त है, वह एक प्रदेशी होने से अस्तिकाय नहीं कहा जा सकता, क्योंकि काय तो प्रदेशों के समुदाय को कहते है। आचार्य हरिभद्र सूरिने भी तत्त्वार्थ वृत्ति में काल को एक समय रूप में निरूपित किया है - समयक्षेत्रवर्ती समय एव निर्विभाग तस्य प्रतिषेधार्थं, स हि समय एव न काय इत्यर्थः / 352 आचार्य हरिभद्रसूरि कृत् धर्मसंग्रहणी की टीका में काल के स्वरूप को अनंत बताया है - काय पर्याय प्रत्येक द्रव्य का भिन्न भिन्न है उसको द्रव्य अनंत होने से काल भी अनंत है।३५३ तत्त्वार्थ भाष्यकार ने - कालोऽनन्तसमय वर्तनादिलक्षण इत्युक्तम्५४ तथा आचार्य हरिभद्रसूरि ने तत्त्वार्थ टीका में - ‘काल सोऽनन्त समयो द्रव्यविपरिणतिहेतु' यह कहकर काल को अनंत बताया है।५५५ वैसे काल के तीन भेद है - संख्यात, असंख्यात, अनंत। ___सबसे छोटा विभाग समय है। जिसका स्वरूप इस प्रकार है - निर्विभाग पुद्गल द्रव्य को परमाणु कहते है। उसकी क्रिया जब अतिशय सूक्ष्म अलक्ष्य हो, और जब वह सबसे जघन्य गतिरूप में परिणत हो उस समय अपने अवगाहन के क्षेत्र के व्यतिक्रम करने में जितना काल लगता है उसको समय कहते है। परमाणु और उसके अवगाहित आकाश प्रदेश की अपेक्षा संक्रान्ति के काल समय को भी अविभाग, परम, निरुद्ध और अत्यंत सूक्ष्म कहते है। सातिशय ज्ञान को धारण करनेवाले भी इसको कठिनता से जान सकते है। इसके स्वरूप का आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIII VIA द्वितीय अध्याय | 152]
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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