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________________ आ. हरिभद्रसूरि ने भी धर्मसंग्रहणी में काल द्रव्य की सिद्धि उल्लिखित की है - "कालस्स वा जस्स जो लोए" कहकर तथा धर्मसंग्रहणी के टीकाकार मलयगिरि ने भी की है वह इस प्रकार - जो उत्पाद-व्यय और ध्रौव्य से युक्त हो वही सत् है। यह सत् का लक्षण कालद्रव्य में घटित होता है और गुण और पर्यायवाला द्रव्य होता है। यह लक्षण भी सिद्ध होने से काल पदार्थ सत् द्रव्यरूप से सिद्ध होता है। हेमन्त आदि ऋतु के परिणमन में कालद्रव्य ठंडी-गरमी आदि परिणामों के प्रति अपेक्षा कारण बनता है। जैसे कि बतक के जन्म में मेघगर्जना का अवाज कारण है। इस प्रकार काल लोक प्रसिद्ध है।३३९ यह बात शास्त्रवार्ता समुच्चय में आ. हरिभद्रसूरि ने इस प्रकार प्रस्तुत की है - न काल व्यतिरेकेण गर्भबालयुवादिकम्। यत्किंचिज्ज्ञायते लोके, तदसौं कारणं किल॥ किंच कालादृते नैव मुद्गपक्तिरपीक्ष्यते। स्थाल्यदिसंनिधानेऽपि ततः कालादसौ मता / / कालाभावे च गर्भादि सर्व स्यादव्यवस्थया। परेष्ट हेतु सद्भाव मात्रादेव तदुद्भवात् / / 340 इन संसार में गर्भाधान, बाल्यकाल, जवानी आदि जो कुछ भी उत्पन्न होता है वह सब काल की सहायता से ही उत्पन्न होता है। काल के बिना नहीं। क्योंकि काल एक समर्थकारण है। बटलोई इन्धन आदि पाक की सामग्री मिल जाने पर भी जब तक उसमें काल अपनी सहायता नहीं करता तब तक मूंग की दाल का परिपाक नहीं देखा जाता। अतः यह मानना ही होगा कि मूंग की दाल का परिपाक काल ने ही किया है। यदि दूसरों द्वारा मान गये हेतु के सद्भाव से ही कार्य हो काल को कारण न माना जाय तो गर्भाधान आदि की को व्यवस्था ही नहीं रहेगी। अर्थात् यदि ऋतुकाल की कोई अपेक्षा नहीं है तो मात्र स्त्री-पुरुष के संयोग से ही गर्भाधान हो जाना चाहिए। महाभारत में इसी बात को विशेष रूप से स्पष्ट करते हुए कहते है - कालः पचति भूतानि कालः संहरते प्रजाः। कालः सुप्तेषु जागर्ति, कालो हि दुरतिक्रमः // 341 ___ “काल पृथिवी आदि भूतों के परिणमन में सहायक होता है, काल ही प्रजा का संहार करता है। अर्थात् उन्हें एक अवस्था में से दूसरी अवस्था में ले जाता है। सदा जागृत काल ही सुषुप्ति दशा में प्राणियों की रक्षा करता है। अतएव यह काल दुरतिक्रम है अर्थात् उसका निराकरण अशक्य है।" लोकतत्त्व निर्णय में आचार्य प्रवर अपनी काल संबंधी मान्यता को प्रस्तुत करते हुए कहते है कि - कालः सृजति भूतानि, कालः संहरते प्रजाः। कालः सुप्तेषु जागर्ति, कालो हि दुरतिक्रमः // 342 आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व XI द्वितीय अध्याय | 151)
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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