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________________ मानने पर तो कुछ भी फेर-फार नहीं हो सकता है।३२५ अतः पर्याय को द्रव्य से कथंचित् भिन्न माना जाए तो काल पर्याय से विशिष्ट जीवादि वस्तु भी काल शब्द से वाच्य बन सकता है।३२६ जिसके लिए आगम पाठ भी साक्षी रूप में है - किमयं भंते। कालोत्ति पवुच्चइ ? गोयमा। ‘जीवा चेव अजीवा चेवति। हे भंते ! काल किसे कहते है ? हे गौतम ! जीव और अजीव काल स्वरूप कुछ आचार्यों के मत से यह धर्मास्तिकाय आदि पाँच द्रव्य से भिन्न और अढी द्वीप समुद्र अन्तर्वर्ती छट्ठा काल द्रव्य है। अतः एक समय रूप होकर भी उसमें द्रव्य-गुण और पर्याय रूप अवस्थाएँ पायी जाती है। यद्यपि काल में प्रतिक्षण परिणमन होने से उत्पाद और नष्ट होने से व्यय, फिर भी द्रव्य दृष्टि से वह जैसा का तैसा रहता है उसके स्वरूप में कोई परिवर्तन नहीं होता है। वह कभी कालान्तर या अकाल रूप में नहीं बनता, वह क्रम से तथा एक साथ होनेवाली अनन्त पर्यायों में भी अपनी अखण्ड सत्ता रखता है। इसलिए द्रव्य से अपनी समस्त पर्यायों के प्रवाह में पूरी तरह व्याप्त होने के कारण वह नित्य है। अतीत वर्तमान या भविष्य कोई भी अवस्था क्यों न हो सभी में 'काल' यह साधारण व्यवहार होता है। जिस प्रकार परमाणु के परिवर्तित होते रहने से अनित्य होता है फिर भी द्रव्य रूप से कभी भी अपने परमाणुत्व को न छोड़ने के कारण नित्य है सदा सत् है कभी भी असत् नहीं है उसी तरह समय रूप काल भी द्रव्यरूप से नित्य है वह भी अपने कालत्व को नहीं छोड़ता है।३२७ / / यह काल न तो निवर्तक कारण है और न परिणामी कारण ही किन्तु अपने आप परिणमन करनेवाले पदार्थों के परिणमन में ये परिणमन इसी काल में होने चाहिए दूसरे काल में नहीं / इस रूप से अपेक्षा कारण होता है। बलात्कार किसी में परिणमन नहीं कराता।काल के द्वारा पदार्थों के वर्तना आदि का निरूपण किया जाता है।३२८ काल का उपकार वर्तना, परिणाम, क्रिया और परत्वापरत्व है। वह इस प्रकार है प्रथम समय के आश्रय से होनेवाली गति, स्थिति, उत्पत्ति और वर्तना ये शब्द एकार्थवाचि है। काल के आश्रय से सम्पूर्ण पदार्थों का जो वर्तन होता है वह वर्तना है।३२९ ___ परिणाम दो प्रकार का है। अनादि और अनादिमान्। क्रिया शब्द से गति को ग्रहण करना है वह तीन प्रकार की है - (1) प्रयोग गति (2) विसस्रागति और (3) मिश्रगति। परत्वापरत्व तीन प्रकार का है। 1. प्रशंसाकृत, 2. क्षेत्रकृत, 3. कालकृत / धर्म महान् है, ज्ञान महान् है, अधर्म निकृष्ट है, अज्ञान निष्कृष्ट है। इस प्रकार किसी भी वस्तु की प्रशंसा-निंदा करने पर प्रशंसाकृत परत्वापरत्व होता है। एक समय में एक ही दिशा में अवस्थित पदार्थों में से दूरवर्ती को परत्व कहा जाता है। तथा निकटवर्ती को अपरत्व कहा जाता है। यह क्षेत्रकृत परत्वापरत्व है। सोलह वर्ष की उम्रवाले से सौ वर्ष की उम्रवाला पर कहा जाता है। इसको कालकृत परत्वापरत्व कहते है। इनमें से प्रशंसाकृत, क्षेत्रकृत, परत्वापरत्व को छोड़कर कालकृत परत्वापरत्व वर्तना, परिणाम तथा क्रिया यह कालद्रव्य का उपकार है। सभी पदार्थ अपने-अपने स्वभाव के अनुसार हमेशा वर्तते है। किन्तु इसको वर्ताने वाला काल ,व्य है। आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VI द्वितीय अध्याय | 148
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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