SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 201
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यह भी धर्मास्तिकाय आदि द्रव्यों की भांति उदासीन कारण है। फिर भी यदि काल कारण न माना जायेगा तो सम्पूर्ण व्यवस्था अस्त-व्यस्त हो जायेगी, क्योंकि प्रत्येक पदार्थ के क्रमभावी परिणमन युगपद् उपस्थित होंगे। वर्तमान भूत-भविष्य आदि भी घटित नहीं होंगे। अतः काल भी एक कारणभूत द्रव्य मानना अत्यावश्यक हो जाता है।३३० जैसे कि - चावल पकाने के लिए चावलों को बटलोई आदि में डाल दिये, उसमें प्रमाणसर पानी तथा नीचे अग्नि प्रज्वलित है इत्यादि सभी कारणों के मिल जाने पर भी पाक प्रथम समय में सिद्ध नहीं होता / उचित समय पर ह। सम्पन्न हुआ करता है। फिर भी हम यह नहीं कह सकते कि प्रथम क्षण उस पाक का अंश भी सिद्ध नहीं हुआ। क्योंकि इस कथन से द्वितीयादि क्षण में भी पाक की सिद्धि नहीं हो पायेगी। अतः हमें यह कहना ही होगा कि वर्तना की वृत्ति प्रथम क्षण से ही उसमें घटित हो जाती है। क्षणवर्ती पर्याय इतना सूक्ष्म है कि वह दृष्टिगोचर नहीं हो सकता है। इसलिए उसके आकार आदि का वर्णन अशक्य है। लेकिन वह अनुमानगम्य हो सकता है जिससे उसके सत्ता का बोध होता है।३३१. - इसी प्रकार वाचक उमास्वाति ने तत्त्वार्थ सूत्र में कालश्चेत्यके'३३२ सूत्र बनाकर यह ही सूचित किया है कि काल नाम का द्रव्य कोई आचार्य स्वीकार करते है क्योंकि उपरोक्त वर्तना आदि उपकार बताये वे उपकारक के बिना कैसे संभवित हो सकते है तथा समय, घडी, घंटा आदि व्यवहार है। वह भी उपादान कारण के बिना नहीं हो सकता है तथा पदार्थों के परिणमन में भी क्रमवर्तित्व कोई कारण भी होना चाहिए तथा सिद्धान्तों में छ: द्रव्यों का उल्लेख भी मिलता है। . जैसे कि - भगवती में बताया है - कति णं भंते ! दव्वा पण्णता / गोयमा छ दव्वा पण्णता, तं जहा धमत्थिकाए, अधम्मत्थिकाए आगासत्थिकाए, पुग्गलत्थिकाए जीवत्थिकाए, अद्धासमए। इसी प्रकार उत्तराध्ययन,३३३ लोकप्रकाश,३३४ बृहद्रव्यसंग्रह,३३५ षड्दर्शन समुच्चय टीका३६ आदि में भी छः द्रव्य की प्ररूपणा तीर्थंकरों के द्वारा की गई है। - आ. हरिभद्रसूरि रचित ध्यानशतकवृत्ति 237 में काल को भिन्न द्रव्य न मानने में क्या कारण ? यह प्रश्न उठाकर उसका समाधान इस प्रकार किया है - काल का पंचास्तिकाय में समावेश होने से उसे भिन्न द्रव्य र / कहा है। वह इस प्रकार कि काल का कार्य वस्तु में जैसे-जैसे उन-उन कारणों से दूसरे पर्याय उत्पन्न होते(वैसे ही सूर्य-चन्द्रादि की क्रिया के सम्बन्ध से काल पर्याय यानि एक सामयिक, द्विसामयिक आदि और नया-पुराना आदि पर्याय उत्पन्न होते है और पर्याय द्रव्य में भेदाभेद सम्बन्ध से आश्रित है। अतः द्रव्य से कथंचित् अभिन्न याने एकरूप होने से काल का नम्बर अलग न गिनकर विश्वान्तर्गत बताए हुए द्रव्य-पर्याय में उसका समावेश कर लिया है। इस बात को लोक प्रकाश में इस तरह अभिव्यक्त की है कि वर्तनादि चार पदार्थ कहे वह द्रव्य के पर्याय ही है और उसे काल से कह सकते है। इसके बारे में आगम में भी कहा है कि हे भगवान ! काल यानि क्या ? हे [आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VITA द्वितीय अध्याय | 149
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy