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________________ में पश्चिम चरमान्त से पूर्व चरमान्त में, दक्षिण चरमान्त से उत्तर चरमान्त में, उत्तर चरमान्त से दक्षिण चरमान्त में, उपर के चरमान्त से नीचे के चरमान्त में, और नीचे के चरमान्त से उपर के चरमान्त में जाता है।३१३ | काल इस मनुष्य क्षेत्र में सतत गगन मंडल में सूर्यचंद्रादि ज्योतिषचक्र लोक के स्वभाव से घूमते रहते है। उनकी गति से काल की उत्पत्ति होती है और काल विविध प्रकार का है। ज्योतिष करडंक नाम के ग्रंथ में भी कहा है कि - लोक के स्वभाव से यह ज्योतिषचक्र उत्पन्न हुआ और उसकी ही गति विशेष से विविध प्रकार का काल उत्पन्न होता है ऐसा जिनेश्वरों ने कहा है।३१४ षड्दर्शन समुच्चय की टीका में कहा है - सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र के उदय एवं अस्त होने से काल उत्पन्न होता है।३१५ काल लक्षण - धर्मसंग्रहणी में काल का लक्षण स्पष्ट करते है - जं वत्तणादिरुवो कालो दव्वस्स चेव पज्जातो। सो चेव ततो धम्मो कालस्स व जस्स जोलोए // 316 वर्तनादिरूप काल धर्मास्तिकाय आदि द्रव्य के ही पर्याय है उससे वह वर्तनादिरूप काल यह उसका लक्षण एवं धर्म है। क्योंकि अभिधान राजेन्द्र कोष में वर्तनादि को ही काल का लक्षण बताया है - ‘वर्तना लक्षणः कालः पर्यवद्रव्यमिष्यते।'३१७ .. तत्त्वार्थ की टीका में आचार्य हरिभद्रसूरिने काल का लक्षण इस प्रकार किया है - 'वर्तनादिलक्षण उपकार कालस्येति।'३१८ काल का वर्तना परिणाम क्रिया आदि उपकार है। तत्त्वार्थकार ने काल की पहचान वर्तनादि से ही दी 'वर्तना परिणामः क्रिया परत्वापरत्वे च कालस्य।'३१९ इसी प्रकार लोकप्रकाश,३२° उत्तराध्ययन,३२१ श्री अनुयोग हारिभद्रीयवृत्ति,३२२ बृहद्र्व्य संग्रह३२३ आदि में भी काल का लक्षण मिलता है। वैशेषिक आदि ने काल को एक व्यापक और नित्य द्रव्य माना है और वह काल नामका पदार्थ विशेष जीवादि वस्तु से भिन्न किसी स्थान में प्राप्त नहीं होता है।३२४ लोक प्रकाश में भी कहा है कि - अन्य आचार्यों के मतानुसार जीवादि के पर्याय ही वर्तना आदि काल है / उससे काल नामक अन्य पृथक् द्रव्य नहीं है। लेकिन यह बात युक्ति युक्त नहीं है। क्योंकि कालद्रव्य नहीं मानने से पूर्व, अपर, परत्व, अपरत्व आदि कुछ भी घटित नहीं होगा और यह प्रत्यक्ष विरोध हो जायेगा, क्योंकि हम स्वयं नया, पुराना वर्तना आदि अनुभव करते है और नित्य आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIII TIIIA द्वितीय अध्याय 147 ]
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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