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________________ में कार्य-कारण का सिद्धान्त सापेक्ष है। प्रत्येक कार्य के पश्चात् कारण ढुंढने की अनिवार्यता नहीं है। प्रयोग परिणाम से पुरुषार्थवाद और स्वभाव परिणाम से स्वभाववाद फलित होता है। जैन दर्शन अनेकांतवादी है इसलिए उसे सापेक्ष दृष्टि से पुरुषार्थवाद एवं स्वभाववाद दोनों मान्य है। गति में सहायक तत्त्वजीव और पुद्गल की गति लोक में ही क्यों होती है ? तो इसका सीधा-सा उत्तर हम अलोक में धर्मास्तिकाय के अभाव को ही स्वीकारते है / लेकिन आगम में धर्मास्तिकाय के अतिरिक्त भी अन्य कारणों का गति सहायक द्रव्य के रूप में उल्लेख है। स्थानांग में चार कारणों से जीव और पुद्गल लोक के बाहर नहीं जा सकते यह दिखाया गया है। चउहि ठाणेहिं य पोग्गला य णो संचाएंति बहिया लोगंता गमणयाए, तं जहा-गति अभावेणं, णिरुवग्गहयाए लुक्खताए लोगाणुभावेणं / 311 / (1) गति के अभाव से लोकान्त से आगे इनका गति करने का स्वभाव नहीं होने से (2) निरुपग्रहता - धर्मास्तिकाय रूप उपग्रह या निमित्त कारण का अभाव होने से (3) रुक्ष होने से - लोकान्त स्थित पुद्गल भी रुक्ष रूप से परिणत हो जाते है। जिससे उनका आगे गमन सम्भव नहीं तथा कर्म-पुद्गलों के भी रुक्ष रूप से परिणत हो जाने के कारण संसारी जीवों का भी गमन सम्भव नहीं रहता। सिद्ध जीव धर्मास्तिकाय का अभाव होने से लोकान्त से आगे नहीं जाते। (4) लोकानुभाव से - लोक की स्वाभाविक मर्यादा ऐसी है कि जीव और पुद्गल लोकान्त से आगे नहीं जा सकते। भगवती में एक प्रश्न उपस्थित किया गया कि लोकान्त में रहकर महर्द्धिक देव अलोक में अपने हाथ यावत् उरु को संकोचने एव पसारने में समर्थ नहीं है, क्योंकि जीवों के अनुगत आहारोपचित, शरीरोपचित और कलेवरोपचित पुद्गल होते है तथा पुद्गलों के आश्रित ही जीवों और अजीवों की गति पर्याय कही गई है, अलोक में जीव नहीं है और पुद्गल भी नहीं है। अतः पूर्वोक्त देव याक्त् पसारने में समर्थ नहीं है / इस वक्तव्य से स्पष्ट है कि यहाँ पर जीव और परमाणु की गति में कारण पुद्गल को माना गया है, यहाँ कहा जा सकता है कि आगमकालीन युग में गति सहायक तत्त्व में धर्मास्तिकाय के सिवाय अन्य कारणों की भी स्वीकृति है। उत्तरकालीन जैन साहित्य में गतितत्त्व के सहायक के रूप में मात्र धर्मास्तिकाय का ही उल्लेख है। चिन्तन के परिप्रेक्ष्य देखे तो ऐसा संभव लगता है कि उत्तरकालीन जैन दार्शनिक जैन मान्यताओं को एक सुव्यवस्थित आकार दे रहे थे। गति सहायक तत्त्व के रूप में प्राप्त कारणों में धर्मास्तिकाय ही असाधारण एवं मुख्य कारण था क्योंकि इतर कारणों में गति सहायक द्रव्य के रूप में स्वीकृत धर्मास्तिकाय जैसा असाधारण नहीं था। अतः असाधारण कारण होने से उत्तरवर्ती आचार्यों ने आगम में प्राप्त अन्य कारणों की उपेक्षा करके धर्मास्तिकाय को ही गति में सहायक तत्त्व के रूप में स्वीकार किया है।३१२ पुद्गल की एक समय में गति - परमाणु पुद्गल एक समय में लोक के पूर्व चरमान्त से पश्चिम चरमान्त | आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIIIIIIIIIIIIIIA द्वितीय अध्याय | 146 )
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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