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________________ (2) क्षेत्राणु के भी चार प्रकार से लक्षण 1. अप्रदेशी, 2. अविभागी, 3. अमध्य, 4. अनर्ध। (3) कालाणु के भी चार प्रकार से लक्षण 1. अरूपी, 2. अचेतन, 3. अक्रिय, 4. अपरावर्तन। (4) भावाणु के भी चार प्रकार से लक्षण 1. वर्णरहितता, 2. गंधरहितता, 3. रसरहितता, 4. स्पर्शरहितता।३०८ * परमाणु के दो भेद है - द्रव्य से नित्य है क्योंकि अविनाशी है और पर्याय से अनित्य है, क्योंकि पूरण, गलन, विध्वंस आदि के प्रभाव से कुछ वर्णादि नाश होते है और उसकी जगह दूसरे परमाणु आ जाते है। कुछ कहते है कि परमाणु नित्य है अतः पर्याय भी नित्य होने चाहिए। लेकिन उनकी यह बात युक्तियुक्त नहीं है क्योंकि पाँचवे अंग में निम्नोक्त पाठ स्पष्ट मिलता है हे भगवंत ! परमाणु पुद्गल शाश्वत है या अशाश्वत ? हे गौतम ! ये शाश्वत भी है और अशाश्वत भी है। द्रव्य की अपेक्षा से शाश्वत है और पर्याय की अपेक्षा से अशाश्वत है।३०९ पुद्गल में तीन प्रकार के परिणाम - भगवति में परिणमन की अपेक्षा पुद्गल के तीन प्रकारों का निर्देश है - (1) प्रयोगपरिणत, (2) मिश्र परिणत, (3) विस्रसा परिणत। गोयमा ! तिविहा पोग्गला पन्नता, तं जहा - पओग परिणया, मीससापरिणया, वीससापरिणया य।३१० जीव के व्यापार से शरीर आदि रूप में परिणत पुद्गल प्रयोग परिणत' कहलाते है। प्रयोग और विस्रसा (स्वभाव) इन दोनों द्वारा परिणत पुद्गल मिश्रपरिणत कहलाते है। विस्रसा अर्थात् स्वभाव से परिणत पुद्गल विस्रसा परिणत कहलाते है। प्रयोग परिणाम को छोड़े बिना स्वभाव से परिणामान्तर को प्राप्त हुए मृत-कलेवरादि पुद्गल मिश्र-परिणत कहलाते है। अथवा स्वभाव से परिणत औदारिक आदि वर्गणाएँ जब जीव के व्यापार से औदारिकादि शरीर रूप में परिणत होती है तब वे मिश्रपरिणत कहलाती है। यद्यपि औदारिकादि शरीर रूप से परिणत औदारिकादि वर्गणाएँ प्रयोग परिणत कहलाती है। क्योंकि उस समय उनमें विस्रसा परिणाम की विवक्षा नहीं की गई है, परन्तु जब प्रयोग और विस्रसा इन दोनों परिणामों की विवक्षा की जाती है तब वे मिश्र परिणत कहलाती है। प्रयोग, मिश्र एवं विस्रसा परिणमन का सिद्धान्त चिन्तन, मन्थन करने पर कार्य-कारण के विषय में एक नवीन दृष्टिकोण प्रदान करता है, विस्रसा परिणत द्रव्य कार्य-कारण के नियम से मुक्त होता है क्योंकि उसमें स्वाभाविक परिणमन होता है, कारण की अपेक्षा नहीं होती है तथा प्रयोग परिणत द्रव्य निमित्त कारण के नियम से मुक्त होता है। क्योंकि इसमें जीव के व्यापार से शरीर आदि परिणत क्रिया होती है। किसी निमित्त कारण की आवश्यकता नहीं होती है। मिश्र द्रव्य में निवर्तक और निमित्त कारण की संयोजना होती है। इस प्रकार जैन दर्शन आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व / A द्वितीय अध्याय | 1457
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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