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________________ बढते संख्यात और असंख्यात प्रदेशों के स्कन्ध होते है। उपरोक्त अनंत स्कंध सूक्ष्म और बादर दोनों परिणामवाले होते है। तथा इसकी स्थिति एक क्षण होती है और बढ़ते-बढ़ते असंख्यात काल की भी होती है। दो प्रदेश से अनन्तप्रदेश तक स्कन्धबन्ध जो विभाग वह स्कन्ध देश कहलाता है। अविभाज्य और मात्र स्कन्धबद्ध ऐसा परमाणु विभाग वह प्रदेश कहलाता है। परमाणु अप्रदेशी है। मात्र ज्ञानचक्षु से ही गोचर है और वह कार्यरूप से दिखता है। स्वयं किसी का कार्य नहीं है। लेकिन यह किसी का कारण तो है ही।३०२ पंचास्तिकाय में पुद्गल पिण्डात्मक समूह रूप सम्पूर्ण वस्तु पुद्गल वह स्कन्ध है। उसके आधे भाग को देश कहते है, देश के आधे भाग को जहाँ तक वे आधे-आधे होते जाये प्रदेश कहते है। जो पुद्गल अविभागी है उसे परमाणु कहते है।०३ बादर और सूक्ष्मरूप हुए स्कन्धों को पुद्गल कहना यह व्यवहार है। वह इस प्रकार, जिस प्रकार शुद्ध निश्चयनय से सत्ता-चैतन्य-अवबोधादि शुद्ध प्राणों से जो यह जीता है वह निश्चय से सिद्धरूप जीव है। व्यवहारनय से आयु आदि अशुद्ध प्राणों से जो यह जीता है, गुणस्थानमार्गणादि भेदों से भिन्न है वह जीव है / उसी प्रकार जो स्पर्श, रस, गन्ध वर्णवाले है, पूरण गलन स्वभाववाले है और स्कन्धरूप हो जाते है वे परमाणु पुद्गल कहलाते है।३०४ जैसे कि अनुयोग सूत्र की मलधारीय टीका में निर्दिष्ट है। _ 'पूरणगलनधर्माणः पुद्गलाः परमाण्वादयोऽनन्ताणुकं स्कन्ध पर्यन्त ते हि कुतश्चिद् द्रव्यादु, लन्ति वियुज्यन्ते किश्चितु द्रव्यं तत्संयोगतः पूरयन्ति भावः ते च तेऽस्तिकायाश्चेति समासः।' 305 तथा श्री अनुयोग हारिभद्रीय वृत्ति में आ. हरिभद्र ने भी यही व्याख्या की है - ‘तथा पूरणगलनधर्माणः पुद्गलाः त एवास्तिकाय पुद्गलास्तिकाय।'३०६ तथा पंचास्तिकाय में इस प्रकार है - वर्णगन्धरसस्पर्शः पूरणं गलनं च यत्। कुर्वन्ति स्कन्धवत् तस्मात् पुद्गलाः परमाणवः॥२०७ इस श्लोक में कथित पुद्गल के लक्षणवाले परमाणु वास्तव में निश्चय से पुद्गल कहे जाते है। व्यवहार नय से द्वि अणुकादि से अनन्त परमाणुओं तक के पिण्डरूप बादर सूक्ष्मरूप स्कन्ध भी पुद्गल है। ऐसा व्यवहार से कहते है। द्रव्य-क्षेत्र-काल और भाव से ये परमाणु चार प्रकार के होते है। इसमें भी चारों के चार-चार भेद से लक्षण बताये गये है। वे इस प्रकार - (1) प्रथम द्रव्य परमाणु के चार प्रकार से लक्षण 1. अदाह्य, 2. अग्राह्य, 3. अभेद्य, 4. अच्छेद्य। [ आचार्य हरिभद्रसूरि का व्यक्तित्व एवं कृतित्व VIIIIIIIIIIIIA द्वितीय अध्याय | 144 )
SR No.004434
Book TitleHaribhadrasuri ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekantlatashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trsut
Publication Year2008
Total Pages552
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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